
आज भी लिखने बैठा हूँ तो दिमाग में बस ये टूटे-फूटे से ख्याल उमड़ कर आ रहे
हैं, जैसे हर शब्द इधर उधर बेतरतीबी से बिखेर रहा हूँ... लेकिन फिर भी आज
सोचा, चाहे जो भी लिखूं उसे पोस्ट कर ही दूंगा... मैंने सुना है मौन रहना
लिखने के लिए बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन इतने मौन के बावजूद भी आज कलम
खामोश है...
कभी अपने मकान की छत पर जाता हूँ तो एक पतली सी दरार से
झांकते पीपल के उस नन्हें से पौधे को देखता हूँ, वहां उसके होने का कोई
भविष्य नहीं, फिर भी वो उसी ज़द्दोज़हद में पलते रहना चाहता है... लेकिन उसका
वहां रहना छत को कमज़ोर कर सकता है.. मैं भी कुछ चीजें अपने दिल की किसी
दरार में दबाकर बैठा हूँ शायद, काश कोई आकर मेरे मन के इस पीपल के पौधे को
हटा पाता... या फिर कम से कम यही बता देता कि वो दरार कहाँ है क्यूंकि मैं
खुद उस टीस को ढूँढ नहीं पा रहा हूँ...
ये पोस्ट पढ़ कर फिर से सलिल चाचू कहेंगे, वत्स चीयर अप... लेकिन क्या करूँ
पिछले १०-१५ दिनों की छटपटाहट के बाद भी बस यही कुछ लिख पाया हूँ...