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Monday, March 18, 2024

कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा...

बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा,
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से,
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ…

कैसे नापूँ आसमान मैं,
कैसे स्वप्न सजीले देखूँ
तूने ही जब राह फेर ली
कैसे अब उन रस्तों की चाल लूँ...

कैसे भूले राधा को कृष्णा,
कैसे विरह का गीत सुनाये
जो प्रेम अपूर्ण है मन के अंदर ,
कैसे उसको पूर्ण बताये...

बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ… 

कैसे उड़ूँ मैं रोशनियों में
जब जुगनू सारे थक के गिर गए,
कैसे देखूँ उन चेहरों को
मेरे लिये वो कबके मर गये...

कैसे फिरसे बरसे बादल
कैसे भींगूं फिर बारिश में मैं,
कैसे ये शहर हो फिर स्वर्ग सरीखा
कैसे हवा हो ठंडी-ठंडी ...

बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ…

Friday, May 08, 2020

मेरी कहानी का एक किरदार...

उसकी ज़िंदगी की सोच और उसे जीने का ढंग अलग अलग वक़्त पर अलग अलग टाइप का रहा... 2001 से पहले वो बहुत ही डरपोक, दब्बू और ख़ामोश सा रहने वाला इंसान था, फिर ज़िंदगी बदली और मैंने उसे दुनिया से लड़ते, सीखते, अपने ख़्वाब तलाशते देखा.... वो अब ग़लत बात के लिए विद्रोह करता था, चीजें नहीं मिलने पर झगड़ता था... उसने ज़्यादा इंसान नहीं बनाए, जो बनाए भी वो अलग होते चले गए... उसका बेबाक़ीपन किसी को नहीं सुहाता था, कई लोग ये भी बर्दाश्त नहीं कर पाए कि उसे ज़िंदगी के बारे में इतना सब कुछ कैसे आता है... पर इस अचानक आए बदलाव और सफलता ने उसे कहीं ना कहीं एक ग़ुरूर दे दिया था, वो किसी का लिहाज़ नहीं करता, उसने और झगड़े किए उनसे भी जो शायद उसकी ज़िंदगी के सबसे अहम लोग थे... पर उसका भी जवाब था क़िस्मत के पास, उससे धीरे धीरे वो सब कुछ छिनता गया जिसका उसे गुरुर था, वो भी अचानक से, एक झटके में... अब उसे फिर से डर लगने लगा है, कि कहीं बाक़ी जो बचा है और जो नया कुछ भी मिल रहा है वो भी न छिन जाए... डर इंसान को कमजोर बनाता है, मैं उसे हिम्मत देता हूँ... उसे कहता हूँ कि उसने बस एक गलती की... पर उस गलती का नाम नहीं बताया... दरअसल वो गलती थी भी नहीं...
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वो अक्सर अपनी बीती बातों को अपना अतीत कहता है, मैं उसे समझाता हूँ कि अतीत जैसा कुछ नहीं होता, जो भी हुआ या हो रहा है उसका असर वर्तमान और भविष्य में रहेगा ही रहेगा... अब उसका असर हम सकारात्मक रखते हैं या नकारात्मक वो हमपे निर्भर करता है.... मैं उसे बचपन से जानता हूँ, ये भी जानता हूँ क़िस्मत उसके साथ थोड़ी बेरुख़ी से पेश आयी है, पर उसमें मुझे ग़ज़ब की जिजीविषा नज़र आती है... उसे बस थोड़ी सी हिम्मत दे दो और वो फिर से उठ खड़ा होता है.... जतिन कहते हैं, इंसान को सेल्फ़ मोटिवेटेड होना चाहिए... लेकिन इस "चाहिए" और "है" के दरम्यान बहुत गहरी खाई है... कहना जितना आसान है, उसे अपने काँधे पर उठा के चलना उतना ही मुश्किल... मैं और वो घंटों बातें करते हैं, वो मुझे हर उस शहर की कहानी सुनाता है जहां से उसे इश्क़ हुआ था... वो शहर से हुए इश्क़ की कहानी तो सुनाता है, लेकिन इंसानों से हुए इश्क़ की कहानी बहुत सफ़ाई से छुपा ले जाता है... पर वो कहानियाँ, उसकी आँखों में साफ़ नज़र आती है... मैं पूछता हूँ कि अगर मैं उसे अपनी कहानी का किरदार बनाऊँ तो उसका नाम क्या दूँ, वो आसमान की तरफ़ देखता और कहता है मुझे किसी नाम से मत बुलाना... नाम अक्सर धोखा देते हैं....
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उसे समझ नहीं आता कि वो ज़िंदगी में कहाँ सही रहा, कहाँ ग़लत... वो अक्सर शिकायत के लहजे से आसमाँ की तरफ़ देखता है, लेकिन उसे पता कुछ शिकायतों का कोई मतलब नहीं होता... वो शिकायतें बारिश की बूँदों के साथ ज़मीन में मिल जाने वाली है... मैं उससे बातें करते हुए अक्सर भूल जाता हूँ कि वो दुखी है, वो चेहरे से दुखी नहीं दिखता. ना ही उसने सपने देखने छोड़े हैं, पर मुझे उसकी आँखों में अब अजीब सा डर दिखायी देता है.... हो सकता है इंसान सपने देखना ना छोड़े लेकिन, उसे देखते हुए डरने ज़रूर लगता है... वो मुझे बीती रात आए सपने के बारे में बताता है, कि कैसे उसे कोई कोस गया था सपने में, ये कहते हुए कि ये सब कुछ जो भी हुआ उसमें बस उसकी गलती थी... वो मुझसे पूछता है कि सच में उसकी गलती थी क्या, मुझे इसका जवाब नहीं पता...



मैं भी एक शिकायत भरे लहजे में आसमाँ की तरफ़ देखता हूँ...
शाम हो चुकी है और हमेशा की तरह, बैंगलोर बारिश की बूँदों से भीग चुका है...
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मैं हमेशा अपनी हर पोस्ट में एक तस्वीर लगाता था, लेकिन तस्वीरें भी झूठ बोलने लगी हैं इन दिनों... 

Saturday, April 25, 2020

रैंडम नोट्स इन द टाइम ऑफ़ कोरोना....

मैं बार बार खुद से यही सवाल पूछता हूँ कि क्या मैं अतीतजीवी हूँ, और जवाब हमेशा ना ही आता है, अतीत में क्या हुआ उससे मुझे शायद ही फ़र्क़ पड़ता हो... लेकिन उस अतीत जी सीख आगे काम आती है... अतीत में आए बवण्डरों ने भले ही इन गंदले खंडहरों में कुछ नहीं छोड़ा लेकिन इन खंडहरों के आँगन में एक पौधा मैं हमेशा उगाता रहा हूँ... मुझे इन ओस की बूदों से अब भी उतना ही प्यार है जितना पहले था, मैं आज भी पहाड़ों को अपना दिल दे बैठता हूँ, आज भी मुझे दूसरों के ख़्वाबों में ही रंग भरने का शौक़ है... फिर ये भी है कि आख़िर क्या बदला है, और इसका उत्तर मुझे भी नहीं पता... बदलने को तो कुछ नहीं बदला, कुछ नहीं बदलता... इस लॉक्डाउन ने ये भी सिखाया कि कैसे हमें नए रूप-रंग के यूज़्ड टू होने में नहीं के बराबर वक़्त लगता है... यही सामान्य लगने लगता है... मैं तो जैसे बहुत कुछ भूल चुका हूँ, अगर कुछ याद है तो बस मेरी पुरानी कहानियों के दो किरदार... 
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मेरे पास एक शहर है, उस शहर के बाहर बस रेत ही रेत है, कभी दिल करता है उसमें जाकर अपने कुछ ख़्वाब रोप दूँ... भले ही ख़्वाब अधूरे हों लेकिन इस बंजर रेत से बेहतर तो वो अधूरे ख़्वाबों का जंगल ही होगा... जब कभी बारिश होगी तो उस जंगल का मुहँ पलट कर रख दूँगा, पेड़ों की फुनगी पे पानी बहेगा और जड़ों में बादल अटक ज़ाया करेंगे... उल्टे-पुल्टे ख़्वाबों का हश्र भी उल्टा ही होना तय किया था मैंने कभी....
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काला एक बेहद खराब रंग है, खामोशी एक खराब शब्द, sad songs खराब टैस्ट और उदासी एक खराब सा दौर... मैं इस बाबत हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहा हूँ... लोगों के सवाल मेरे जानिब आते रहते हैं कि मैं इतना उदास सा क्यूँ लिखता हूँ, मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होता... मुझे भी नहीं पता कि मैं इतने उदास रुत का लेखक क्यूँ हूँ... ऐसा नहीं है कि मैंने इश्क़ पर नहीं लिखा, या खुशमिजाजी बिलकुल ही गायब रही हो मेरे सफहों से... पर उदास सा कुछ सोचकर उसे लिखते हुये मैं बहुत गहरे उतर जाता हूँ, इतना गहरा कि जैसे खुद वो सब कुछ जी रहा हूँ... मेरी इस उदास सी शै के बीच मैं खुश भी होता हूँ... उदास सा लिख कर भी खुश होता हूँ, और जब हद्द से ज्यादा खुश हूँ तो फिर उदास सा कुछ लिखता हूँ.... उदासी, तनहाई मेरी ज़िंदगी में आती रही है, हर किसी के ज़िंदगी में आती होगी.... बस मैं उसे कुछ घड़ी रोक कर उसे अपनी diary में उतार देता हूँ.... मेरी उदासी सिर्फ मेरे हर्फ में है, ज़िंदगी से उसे हमेशा दूर करता रहा हूँ मैं....

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बारिश... बैंगलोर की बारिश... एक एक टपकती बूँद से इश्क़ हुआ था कभी... पहली बार जब कुछ दिनों के लिए आया था तो अप्रैल का महीना ही था शायद, चिलचिलाती गर्मी के बीच शाम को हुई उस बारिश ने जैसे किसी मोहपाश में जकड़ लिया और हमेशा के लिए यहाँ आ गया... 2011 से 2020 तक का ये सफ़र, ऐसे जैसे कल ही की बात है... इस बीच कितना कुछ हो गया, लगता है अभी सो के उठा हूँ और वो सब कुछ शायद ख़्वाब था, जैसे कोई भ्रम... अभी एहसास हुआ कि गुलमोहर खिल गए होंगे, पर इस बार देख पाऊँगा या नहीं पता नहीं.. अब गुलमोहर में उतना इंट्रेस्ट रहा भी नहीं... बैंगलोर और उसकी बारिश, मुझे मालूम है ताउम्र ये बारिश अपनी सोन्धी ख़ुशबू के साथ बहुत कुछ याद दिलाती रहेगी... कुछ लोगों के मिलने से लेकर उनसे बिछड़ने तक का सफ़र...

Thursday, January 23, 2020

एग्जामिनेशन सेंटर...

उन दिनों शायद
मेरा एक ही मक़सद हुआ करता था
कि किसी तरह पता चले
तुम्हारा कहीं कोई
इग्ज़ाम तो नहीं,
या कोई इंटर्व्यू ही हो,

और ज़िद करूँ
तुम्हारे साथ चलने की
तुम्हारे एग्जामिनेशन सेंटर तक,
कि जब तक तुम देती रहो इग्ज़ाम
मैं इंतज़ार करूँ तुम्हारा
वहीं कहीं बाहर
किसी चबूतरे पर बैठे हुए
या किसी पेड़ के नीचे,

बाहर के किसी ठेले से
खायी वो दो बेस्वाद इडलियों
का स्वाद घुलता रहे
इग्ज़ाम के ख़त्म के होने के इंतज़ार में...

फिर पूछूँ तुमसे कि कैसा हुआ सब कुछ,
तुम सुनाओ उन सवालों को
और कैसे तुमने हल कर दिया उन्हें,
और फिर वापस चल पड़ें
हॉस्टल की तरफ़
बस में बैठकर,
ऐसे ही किसी लाल एसी बस में
बैठे बेखयाली में
तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था,
तो चौंक गयी थी न तुम...

उन दिनों बस तुम्हारे साथ ही
दिल करता था रहने का,
अब जब बातें वो बीत गयी
तो लगता है
इतना मुश्किल था क्या
साथ निभा जाना उस इंसान का,
जिसने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा था
एग्जामिनेशन सेंटर में भी नहीं...

Saturday, January 18, 2020

सीधी-सादी कविताएं...

उसे पसंद है सीधी-सादी कविताएं
जिनमें शब्दों के जाले न बुने गए हों
जिनमे बस बदहवास
प्रेम लिखा और कुछ नहीं
न उर्दू अल्फ़ाज़ों से खेला हो मैंने
न ही कोई विम्ब ऐसा
जो उसे समझ न आये
जिसमें भाव के अंदर
कोई और भाव न छुपा हो
इन्सेप्शन की तरह..

मैं उठाता हूँ अपनी डायरी 
खोजता हूँ कि 
लिखा हो शायद 
कुछ ऐसा आसान सा 
फिर लगता है जब 
ज़िंदगी ही कभी इतनी आसान न थी
तो लिखता कैसे... 

अब आसान सा लिखूँ 
तो झूठ लगता है,
उतना ही झूठ 
जितनी कुछ बीती बातें 
लगने लगी हैं आज कल... 

Saturday, February 23, 2019

अब इसका क्या शीर्षक हो भला...

वक़्त बहुत गुज़र गया है इन सालों में, उतना ही जितना कायदे से गुज़र जाना चाहिए था.. ज़िन्दगी भी वैसे ही चल रही है जैसे मामूली तौर पर चला करती है... कोई चुटकुला सुना दे तो हंस देता हूँ और कोई इमोशनल मूवी दिखा दे तो आंसू निकल आते हैं... कुछ भी ऐसा बदला नहीं है, जिसका जिक्र करना ज़रूरी मालूम पड़े... हाँ इन बीते सालों में सीखा बहुत कुछ, सीखा कैसे दुनिया दोतरफा बातें कर सकती है... कैसे मोहब्बत नफरत के सामने कमज़ोर नज़र आती है कभी-कभी, कैसे आप कुछ चाहें तो उसको हासिल करने का ज़ज्बा कितना कुछ करवा जाता है...

ज़िन्दगी आम तौर पर किसी लड़ाई से कम तो है नहीं, कभी अपनों से, कभी दुनिया से और कभी अपने आप से ही... इस लड़ाई के बीचो बीच मैं खड़ा होकर आसमां निहारा करता हूँ, मुझे सुकून पसंद है... इस लड़ाई में अकेले जाने का दिल नहीं करता, लगता है मुँह फेर लूं... 

ज़िन्दगी कई सारे झूठों के इर्द-गिर्द सिमट न जाए इसलिए दुनिया में मोहब्बत बनी होगी, ऐसा सच जो जीना मुकम्मल करता है... इस लड़ाई में जब आस-पास इश्क़ घुल जाए तो अच्छा लगता है, लगता है जैसे कोई एक इंसान तो है जो मेरे साथ खड़ा है... लगता है ज़िन्दगी इतनी लम्बी होने की ज़रुरत ही क्या थी, चार दिन की ही होती लेकिन मोहब्बत से भरी होती तो क्या बुरा था, क्यूँ इतना दर्द देखना भला... 

अजीब बात ये हैं कि कम से कम भारत में हर फिल्म, हर गाना मोहब्बत के इर्द गिर्द ही लिखने का दौर रहा है और इस देश को सबसे मुश्किल मोहब्बत समझने में ही लग गयी, साथ रहने-साथ होने के लिए मोहब्बत से ज्यादा ज़रूरी भी भला क्या हो सकता है... 

मेरे अन्दर लेखक कभी बसता था भी या नहीं, ये तो नहीं पता लेकिन अब जब कभी लिखने बैठता हूँ तो लगता है कि जैसे मेरी कलम पर एक बोझ सा आन पड़ा है, अपनी मोहब्बत को हमेशा साथ रखने का बोझ... उसके बिना तो जैसे कुछ कर ही नहीं पाऊंगा कभी... 

ऐसे अकेला बैठा बैठा कुछ भी बकवास लिखता रहूँ और तुम ये पढ़ते रहो तो मुझे ही बुरा लगेगा न... 

एक मुसाफिर, जो तारों को देखता था, चाँद को सहलाता था, आसमान को बांधता था, सुबह की सूरज की किरणों में सुकून महसूस करता था... जिसने तितलियों की आखें पढने की कोशिश की थी, जो जागती आखों से सपने देखता था, उसे तुम्हारा इंतज़ार रहता है इन दिनों... 

Thursday, March 22, 2018

बस एक बेहतर कल की तलाश में...

मैं घिसता हूँ खुद को हर रोज,
खुद को खुद से आगे निकालना चाहता हूँ,
ये रगड़ एक आग पैदा करती है
मैं अकेला बैठ कर जल जाता हूँ हर शाम उसमें...
थक कर, घायल होकर
सवाल फिर खुद से ही करता हूँ
कि क्या ज़रुरत है इस संघर्ष की
दिल भी कन्धा उचका कर दे देता है जवाब,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

मैं निराश होता हूँ क्यूंकि
मैं वो नहीं बन पाया
जो शायद बनना ज़रूरी था मुझे,
फिर भी मैं हर रोज लड़ता हूँ
निराशा को दरकिनार करता हूँ,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

मेरे पास हर उस कल के सपने हैं,
जो कल नहीं आया अब तक
पता नहीं वो कल कभी आएगा भी या नहीं,
मेरे तले ज़मीं भी रहेगी या नहीं तब तक...

मेरा आज मुझे धिक्कारता है
क्यूंकि मेरा आज कभी आने वाला कल था
जिसकी फ़िक्र मैंने कभी नहीं की
और अब मैं अपना आज गंवा बैठा हूँ
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

ज़िन्दगी से कई सवाल हैं मेरे,
मैं नोटबुक में लिखता रहता हूँ
जो कभी उस दुनिया में कभी सामना हुआ तो
पूछ पाऊं उन सवालों को
फिलहाल तो आज बस मैं सवाल ही लिखता जा रहा हूँ
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

लगता है कि शायद कभी
किसी मोड़ पर गर
पर्दा गिराना हो इस ज़िन्दगी के नाटक से
तो क्या वो भी कर लूंगा मैं,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

Sunday, September 03, 2017

वक़्फ़ा...

मुझे कटिहार का वो बचपन याद आता है, मासूम से थे वो दिन, मैं दुनिया समझने की कोशिश कर रहा था, मैं उन दिनों कहानियां पढता था... फंतासी वाली कहानियां.. परियों की कहानियां, जादू की कहानियां, सुपर हीरोज की कहानियां... उन कहानियों को पढ़ते-पढ़ते शायद मैं इतना ज्यादा खो गया था कि मुझे सालों तक ये लगता रहा कि शायद किसी दिन कोई परी आकर मेरे हाथों में मेरी छोटी बहन रख जायेगी, मैं बस उसे प्यार ही करता रहूँगा और यही है मेरा जीवन... उन दिनों मैं जम कर गलतियां करता था, बेवकूफों वाली गलतियां और अपनी ही गलतियों पर हंस दिया करता था.. बार बार एक ही गलती करता था... 

मुझे पटना का वो पागलपन याद आता है जब मैंने ज़िन्दगी को पहली बार अपने नज़रिए से देखना शुरू किया था... उन दिनों जैसे पैर ज़मीं पर ही नहीं थे, कितना कुछ नया हो गया था, सबसे मीठा वाला इश्क़... एकदम हरी दूब के टूसे जैसा कोमल जिसपर मैंने अपने सपनों को पानी की बूँद सरीखा सज़ा दिया था... उन दिनों ऐसा लगता था जैसे कभी कुछ गलत हो ही नहीं सकता, दुनिया में सब अच्छे हैं... एक दोस्त ने तब कहा था कि मुझे देखकर ऐसा लगता है कि मैं आज तक बस अच्छे इंसानों से मिला हूँ और मुझे सब अच्छा ही अच्छा नज़र आता है... शायद बात सच भी उतनी ही थी, सब कुछ तो अच्छा था जैसे... बिना किसी शक वो मेरी ज़िन्दगी के सबसे हसीं दिन थे... 

मुझे हिमाचल की सर्दियां याद आती हैं, उन सर्दियों में मैंने ज़िन्दगी का रुखड़ा सा हिस्सा भी चख लिया... दुनियादारी सीखी, सही गलत इंसानों का फर्क महसूस किया और फिर वो एक दिन... सब कुछ जैसे थम गया, पहली बार मैंने तन्हाई महसूस की... सपने-ख्व़ाब-परियां-इश्क़ सब कुछ राख़ में तब्दील कर दिया... भले ही 10 साल हो गए लेकिन कई-कई रातों तक भीगे उस तकिये की नमी आज भी मैं अपनी आखों में महसूस करता हूँ, उस राख के रेशे आज भी ख़्वाबों में भूले भटके आ ही जाते हैं... और अजीब बात ये कि उस वक़्त तो मुझे शिकायत करना भी नहीं आता था, बस खुद में घुट कर रह गया... मैंने तो अपने आस-पास बस फूल ही उगाये थे फिर जाने कहाँ से ये काँटा आकर इतना गहरा चुभ गया... फिर एहसास हुआ कि पर कुदरत की मूंगफलियाँ ज़मीं के नीचे दबी होती हैं और नज़र भी नहीं आती...

मैं भी दीवाना था न आखिर, मैंने सोचा अब अपने आस-पास कैक्टस ही कैक्टस उगा लेता हूँ... मेरी जिद थी कि अगर मेरे शरीर में कहीं भी दरारें पड़ी तो वो मेरी खुद की बनायीं गयी होंगी... मेरे आलावा और किसी को इतना हक ही नहीं दूंगा जो मुझे नुक्सान पहुंचा सके.. मैं अब भी इन्हीं कैक्टसों के बीच में हूँ, खुद को छिलता रहता हूँ... ये एक लड़ाई दरअसल खुद के ही साथ है... अब मुझे गलतियां बिलकुल भी पसंद नहीं आती, मुझे अपने खुद के ख्व़ाब बेमानी लगते हैं... मुझे अब यहाँ से बाहर निकलने में डर लगता है, मैं वल्नरेबल नहीं बनना चाहता फिर से... मैं कईयों के लिए गलत बन गया हूँ, उन्हें बस मेरे आस-पास के कैक्टस नज़र आते हैं... जिस इंसान को दुनिया में सब कुछ अच्छा नज़र आता था आज वो शायद खुद ही बुरा सा कुछ बन के रह गया है... 

दूर बादलों के पीछे एक गज़ब का तीरंदाज़ है, हम उसके निशाने से बच नहीं सकते... 

Friday, June 24, 2016

बंद कमरा...

इन दिनों मैं बहुत कुछ ऐसा सोचने लगा हूँ जो मैं नहीं चाहता कि तुम पढ़ो, कुछ रद्दी से पड़े पन्नों पर लिखकर उसे फाड़ कर फेक देता हूँ.... कभी हमारे बीच में की गयी कुछ अनकही बातों के सिरे को भी पकड़ो तब भी उससे नयी कोई बात नहीं निकलती... ससर गाँठ की तरह सारी पुरानी बातों के गिरहें खुलकर बस सीधा सन्नाटा बच जाता है... मैं फिर से ख़ानाबदोश होने लगा हूँ, दिन भर बेफालतू इधर उधर बौखलाया फिरता हूँ ... इंसान चाहकर भी अपनी परछाईयों से नहीं भाग सकता, शायद इसलिए मुझे अंधेरा अच्छा लगता है... किसी से नज़र चुराने की ज़रूरत नहीं है, खुद से खुद की बातों में खो जाना ही असीम सुख है... कितना अच्छा होता न अगर अंधेरा ही सच होता, इस तेज रौशनी में मेरी आखें चौंधिया जाती है, दिल में जलन होती है सो अलग... 

शाम को इस अंधेरे से कमरे में बैठकर अपने अंदर की रगड़ सुन रहा हूँ, दिमाग बार-बार दिल को कहता है आखिर ज़रूरत क्या थी इश्क़ करने की, अब भुगतो... और दिल चुपचाप खुद को एक कमरे में बंद कर लेता है, मुझे डर लगता है कहीं यूं अकेले रहते रहते मैं किसी बंद कमरे में तब्दील न हो जाऊँ... 

रात एक माचिस है, 
और तन्हा होना एक बारूद 
तेरी याद एक रगड़ है, 
तीनों गर मिल जाएँ 
तो मेरी धड़कन 
राख़ हो जाती है जलकर....

Wednesday, June 08, 2016

मैं तुमसे भाग के भी तुम तक ही आऊँगा...

दिन भर की इधर उधर बेमानी सी बातों के इतर जल्द से जल्द घर पहुँचने की जाने क्यूँ अजीब सी हड़बड़ी होती है... शायद एक कोने में लौटने भर का सुकून ही है जो मुझे आवारा बना देता है... 

कभी कभी मुझे डर लगता है कि अगर मैं किसी दिन शाम को घर नहीं लौट सका तो डायरी में समेटे हर्फ बिखर तो नहीं जाएँगे... हर सुबह मैं कितना कुछ अधूरा छोडकर उस कमरे से निकलता हूँ, उस अधूरेपन के लिबास पर कोई पासवर्ड भी नहीं लगा सकता... बैंग्लोर में बारिश भी तो हर शाम होती है, और मैं हर सुबह खिड़की खुली ही भूल जाता हूँ... अगर कभी ज़ोरों से हवा चली तो वो खाली पड़े फड़फड़ाते पन्ने मेरे वहाँ नहीं होने से निराश तो नहीं हो जाएँगे... हर सुबह उस खिड़की से हल्की हल्की सी धूप भी तो आती है, उस धूप को मेरे बिस्तर पर किसी खालीपन का एहसास तो नहीं होगा... मेरे होने और न होने के बीच के पतले से फासले के बीच मेरी कलम फंसी तो नहीं रह जाएगी न, उस कलम की स्याहियों पर न जाने कितने शब्द इकट्ठे पड़े हैं, उन्हें अलग अलग कैसे पढ़ पाएगा कोई... 

मैं कमरा भी ज्यादा साफ नहीं करता, मेरे कदमों के निशान ऐसे ही रह जाएँगे... उन निशानों को मेरी आहट का इंतज़ार तो नहीं होगा न... मेरी अनंत यात्रा के मुकद्दर में नींद तो होगी न, अक्सर जब मुझे नींद नहीं आती तो कुछ सादे से पन्नों पर अपनी ज़िंदगी लिखने का शौक भी पाल रखा है मैंने.... इत्तेफाक़ तो देखो मुझे सिर्फ अपने बिस्तर पर नींद आती है, और मैं अपने साथ अपनी डायरी भी लेकर नहीं निकलता....  

ऐसे में मैं अपनी हथेलियों पर तुम्हारे लिए चिट्ठियाँ उगा कर भेजा करूंगा.... तुम्हें तो पता है ही कि मेरी हथेलियों पर पसीने बहुत आते हैं, उसे मेरे आँसू न समझ बैठना... 

क्या मुझे साथ में एक्सट्रा जूते रख लेने चाहिए, कहीं किसी तपते रेगिस्तान में फंस गया तो उस आग उगलती रेत में कैसे पूरा करूंगा घर तक वापस आने का सफर... उफ़्फ़ मेरी कलाई घड़ी में इतने दिनों से बैटरि भी नहीं है, वक़्त का पता कैसे लगाऊँगा... इस घड़ी की सूईयों की तरह ये वक़्त भी कहीं भी ठहर जाता है, मेरा वक़्त सालों से मेरे बिस्तर के आस-पास अटक कर रह गया है... तुमको जो घड़ी दी थी न उसमे वक़्त देखते रहना क्या पता उस घड़ी के समय के हिसाब से मेरे कदम तुम्हारी तरफ चले आयें... 

दिल करता है पूरा शहर अपने साथ लिए चलूँ जहां भी जाता हूँ, लेकिन कितना अच्छा होगा न अगर तुम ही बन जाओ मेरा पूरा शहर, मेरी घड़ी, मेरा वक़्त, मेरी डायरी, मेरी कलम, मेरी धूप, मेरी शाम, मेरी बारिश, मेरी पूरी ज़िंदगी...  

Tuesday, March 29, 2016

एकांत...

खिड़की के चार सींखचों और
दरवाज़े के दो पल्ले के पीछे
इस बेतरतीब बिस्तर
और इन तकियों के रुई के फाहे में,
बिना रुके इस घुमते पंखे
और इस सफ़ेद CFL की रौशनी में,
हर उस शय में
जो मुझे इस कमरे के
चारो तरफ से झांकती है...
इस घुटन में
पालथी मार के बैठा है
चपटा हुआ चौकोर एकांत...
 
मैं इस एकांत को,
तह-तह समेटता हूँ
इसके मुड़े-तुड़े कोनों पर
इस्तरी लगाके इसकी सिलवटों को
समतल करता हूँ,
लेकिन हर बार ये एकांत
वापस छितर जाता है
हर कोने में,
क्या इस एकांत को
बंद किया जा सकता है
किसी बोतल में
और फेक दिया जाए
किसी सागर की अथाह गहराईओं में,
तुम्हारी आँखें भी मुझे
किसी समंदर सा एहसास दिलाती हैं,
क्या पी जाओगी मेरा ये सारा एकांत...

Saturday, March 26, 2016

कोने पे तनहाई...

इन दिनों मैं पेंसिल से लिखता हूँ
ताकि मिटा दूँ लिखने के बाद
और शब्दों को बचा सकूँ
इधर उधर ओझरा जाने से,
काश कि आस-पास उलझे हुये
यूं बेवजह लड़ते हुये
लोगों को भी मिटा पाता
किसी इरेज़र से
और उगा देता वहाँ
गुलमोहर और अमलताश के कई सारे पेड़....

*********

नीले आमों की गुठलियों पर
काले संतरे उगाने हैं
पर कमबख्त ये बैंगनी सूरज
अपनी हरी किरणें
पड़ने ही नहीं देता इन लाल पत्तों पर...
ये रंग भी अजीब होते हैं न,
ज़रा से इधर उधर हो जाएँ तो
अर्थ ही बदल देते हैं... 

*********
मैं इन दिनों
किसी खाली डब्बे सा बन के रह गया हूँ,
बिलकुल खोखला,
जो हर छोटी बात पर
ढनमनाता रहता है...
मुझे यकीन था
कि किसी न किसी रोज़
कोई मेरे इस बेवजह के शोर
की वजह तलाशता ज़रूर आएगा,
लेकिन अब मैं खुद बुतला गया हूँ
और खोजता हूँ अपने आप को,
एक खाली से डब्बे का भी क्या वज़ूद होगा भला...

Monday, March 21, 2016

माइनस इनफिनिटी....

तुम्हारे कुछ बाल 
इन कंघियों में कैद होकर रह गए हैं
उसी तरह जैसे मकड़ी
खुद कैद हो जाती है
कभी कभी
अपने ही बुने जाले में...

*********

ओझराए हुये इन धागों के कोने में,
एक हल्की सी गांठ बांध रखी है
तुम्हारे नाम की,
चाहे कितना भी लटपटा जाऊँ
ज़िंदगी की लटेर के ऊपर,
हमेशा ये सनद रहेगा
कि मेरा एक सिरा बांध रखा है
तुमने हमेशा हमेशा के लिए....

*********

प्रेम इन्फाईनाईट की तरह है,
चाहे तो किसी से जोड़ लो, घटा लो
गुना करो, चाहे तो भाग लगा लो,
आगे माइनस लगा के
चाहो तो माइनस इनफ़िनिटी कर लो,
लेकिन वो वैसे ही बना रहेगा
उसी अभेद्यता के साथ,
जैसे मिले हुये हों
दो शून्य आपस में
सदा सदा के लिए...

Sunday, March 13, 2016

आधी-अधूरी पंक्तियों का नशा...

मैं एक भ्रम हूँ,
उस आईने के लिए
जो मुझमे खुद को देखता है...

***********

मुझे पता है
तुम कवितायें नहीं लिखती
लेकिन तुम्हारी मुस्कान
मेरे ऊपर लिखी गयी
तुम्हारी सबसे हसीन कविता है...

***********

तुमको अपना हमसफर बनाना
या ये कहूँ कि
बनाने का फैसला लेना
उतना ही आसान था जैसे
आँगन में पसरे कपड़ों का
अचानक से आई बारिश में भीग जाना,
लेकिन मुझे अपना हमसफर बना के
तुमने मुझे बना दिया है
कई खोटी चवन्नियों का मसीहा....

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आज शाम है,
कल बारिश
और परसों इश्क़...
उलझी सी बातें हैं न,
फिर उलझ न जाए
बारिश की बूंदे भी
हमारी नज़रों के धागे में...

Sunday, February 21, 2016

परिवर्तन...

परिवर्तन,
ये शब्द और इसका निर्माण
उतना ही सहज है
जितना सुबह के बाद शाम,
शाम के बाद रात,
इसमें कुछ भी अजीब नहीं
कुछ भी असंभव नहीं...

जो आज है वो कल नहीं होगा
जो कल है वो आज नहीं हो सकता,
जिससे आप आज प्रेम करते हैं
उसका बदलना अवश्यम्भावी है,
प्रेम न बदले उसका भार
अपने अंदर के परिवर्तन को उठाना होगा...

परिवर्तन, आज मुझमे है कल सबमे होगा,
सब के पैर परिवर्तन की धुरी पर हैं...

Thursday, February 11, 2016

दर्पण के नियम...

मैं खुद को आवाज़ लगता हूँ हर बार,
और मेरी आवाज़ मुझसे ही टकराकर
वापस लौट आती है,
काश कि आवाज़ आ पाती
दर्पण के परावर्तन के नियम के खिलाफ,
मेरा दिल इस दर्पण का आपतन बिन्दु है...

याद रखना अगर मैं घूमा लूँ
अपना दिल किसी थीटा कोण से,
मेरी आवाज़ की परावर्तित किरण
इकट्ठा कर लेगी दोगुना घूर्णन,
ये हर दर्पण का प्रकृतिक गुण है....

मेरा ये दिल दर्पण ही तो है तुम्हारा,
है न...

Tuesday, January 19, 2016

मेरे शब्द जंगल से हैं...

हर एक शब्द एक जंगल सरीखा होता है,
अपने अंदर कितना कुछ समेटे हुये
कई सारे पेड़, लताएँ
सैकड़ों चिड़ियों की बातें
जो की गयी हों आपस में ही,
बहुत देर तक मैं किसी
जंगल में हस्तक्षेप नहीं करता
बढ्ने देता हूँ उसे यूं ही
फलते-फूलते जंगल कई बार
मुझे मेरी ज़िंदगी की
कहानियाँ दे जाते हैं....
हर तरह की प्राकृतिक और मानवनिर्मित
आपदाओं से
इस जंगल को बचाए रखने का
संघर्ष ही जीवन है.... 

Wednesday, May 27, 2015

समानांतर धाराएँ...

दो दिन जो समानांतर हैं,
आपस में कभी मिल नहीं सकते,
लेकिन दिखते नहीं है ऐसे,
टेढ़ी-मेढ़ी सरंचनाएँ हैं इनकी,
मैं मिलता हूँ दोनों से
अलग अलग वक़्त पर...
सब कुछ वही रहता है, 
लेकिन मैं वो नहीं हूँ
जो मैं था आज के पहले
मैं बदलता रहता हूँ
गिरगिट के रंग की तरह...
फिर भी मुझे शंका होती है
मैं वही हूँ या
बदल जाता हूँ हर बार,
एक पूरा दिन
अकेला बिता लेने के बाद,
पता नहीं मैं हूँ या नहीं हूँ,
लेकिन जब था तब नहीं था....

Wednesday, February 25, 2015

हर ज़र्रे से इश्क है मुझे....

प्यार कभी अधूरा नहीं होता,
वो हमेशा उतना ही पूरा होता है
जितनी कि
जिस्मों की जद्दोजहद के बाद 
उस आखिरी-क्षण की उत्तेजना...

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मेरे शब्दों के कोई
सिर-पैर नहीं होते,
जब तक अंदर रहें
मन के कोने में
बिलबिलाते रहते हैं,
मैं इन शब्दों को पचा नहीं पाता
अपच से पीड़ित मेरे मन से निकले  
इन अनंत शब्दों के बीज से
उग आते हैं कई घने जंगल,
मैं उन जंगलों में बैठ कर
अपने अस्तित्व को नकार दिया करता हूँ....  

****

कभी-कभी सुबह खिड़कियों से आती रोशनी
अच्छी नहीं लगती
मैं रहना चाहता हूँ अंधेरे में
बस और थोड़ी देर,
इस अंधेरे को अपने अंदर
खीच लेना चाहता हूँ
सिगरेट के उस आख़िरी कश की तरह....

**** 

धरती खीच लाती है
हर रोज इस धूप को,
मैं खुद को रज़ाई में गोतकर
तैरना चाहता हूँ
इस गुरुत्वाकर्षण के नियम के खिलाफ,
इस खिड़की से आती हुई
इस नुकीली धूप के सिरे को उधाड़कर
जला देना चाहता हूँ... 

Monday, January 19, 2015

नींद जो ख़्वाब में आती है...

जागती आँखों के सपने
अक्सर मुझे परेशान करते हैं,

मैं सोना चाहता हूँ
हवा में औंधे मुंह किए
गुरुत्वाकर्षण के नियम के खिलाफ,
चाहता हूँ कि
ख़्वाब में आए नींद का झरोखा कोई,
घड़ी का चलना भी
डायल्यूट हो जाये
मेरी साँसो की तरह...

खुद से लड़ते झगड़ते हुये
कई बातें जो मैं भूल चुका हूँ
उन बातों की अधूरी लिस्ट को भी
Shift+Delete कर देना चाहता हूँ,

अगर जो सुकून और खुशी
अब इन कंक्रीट के जंगलों में ही
मिलते हों तो,
डूबते हुये नारंगी सूरज का जो लम्हा
कैद है मेरी इन आँखों में 
उसे भी मैं इन ऊंची इमारतों के अंदर ही
जमा देना चाहता हूँ सीमेंट से
हमेशा हमेशा के लिए... 
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