उन दिनों शायद
मेरा एक ही मक़सद हुआ करता था
कि किसी तरह पता चले
तुम्हारा कहीं कोई
इग्ज़ाम तो नहीं,
या कोई इंटर्व्यू ही हो,
और ज़िद करूँ
तुम्हारे साथ चलने की
तुम्हारे एग्जामिनेशन सेंटर तक,
कि जब तक तुम देती रहो इग्ज़ाम
मैं इंतज़ार करूँ तुम्हारा
वहीं कहीं बाहर
किसी चबूतरे पर बैठे हुए
या किसी पेड़ के नीचे,
बाहर के किसी ठेले से
खायी वो दो बेस्वाद इडलियों
का स्वाद घुलता रहे
इग्ज़ाम के ख़त्म के होने के इंतज़ार में...
फिर पूछूँ तुमसे कि कैसा हुआ सब कुछ,
तुम सुनाओ उन सवालों को
और कैसे तुमने हल कर दिया उन्हें,
और फिर वापस चल पड़ें
हॉस्टल की तरफ़
बस में बैठकर,
ऐसे ही किसी लाल एसी बस में
बैठे बेखयाली में
तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था,
तो चौंक गयी थी न तुम...
उन दिनों बस तुम्हारे साथ ही
दिल करता था रहने का,
अब जब बातें वो बीत गयी
तो लगता है
इतना मुश्किल था क्या
साथ निभा जाना उस इंसान का,
जिसने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा था
एग्जामिनेशन सेंटर में भी नहीं...
मेरा एक ही मक़सद हुआ करता था
कि किसी तरह पता चले
तुम्हारा कहीं कोई
इग्ज़ाम तो नहीं,
या कोई इंटर्व्यू ही हो,
और ज़िद करूँ
तुम्हारे साथ चलने की
तुम्हारे एग्जामिनेशन सेंटर तक,
कि जब तक तुम देती रहो इग्ज़ाम
मैं इंतज़ार करूँ तुम्हारा
वहीं कहीं बाहर
किसी चबूतरे पर बैठे हुए
या किसी पेड़ के नीचे,
बाहर के किसी ठेले से
खायी वो दो बेस्वाद इडलियों
का स्वाद घुलता रहे
इग्ज़ाम के ख़त्म के होने के इंतज़ार में...
फिर पूछूँ तुमसे कि कैसा हुआ सब कुछ,
तुम सुनाओ उन सवालों को
और कैसे तुमने हल कर दिया उन्हें,
और फिर वापस चल पड़ें
हॉस्टल की तरफ़
बस में बैठकर,
ऐसे ही किसी लाल एसी बस में
बैठे बेखयाली में
तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था,
तो चौंक गयी थी न तुम...
उन दिनों बस तुम्हारे साथ ही
दिल करता था रहने का,
अब जब बातें वो बीत गयी
तो लगता है
इतना मुश्किल था क्या
साथ निभा जाना उस इंसान का,
जिसने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा था
एग्जामिनेशन सेंटर में भी नहीं...