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Wednesday, March 13, 2024

अधूरी दास्तानें (2)...

“प्यार तो सबसे बेसिक ज़रूरत है ना जीने के लिए."
“है तो….”
“फिर ? “
“फिर क्या ?”
“कुछ नहीं.”
“प्यार है ना, बहुत है… प्यार अब तक है तभी तो ज़िंदा हूँ…”
“………..”

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मुझे लगता है दो बिछड़ जाने वालों के बीच एक कोड वर्ड होना चाहिए, जो सिर्फ़ वो दोनों समझ सकें. जब भी ये कोड वर्ड बोला जाए तो दूसरे को ये एहसास हो जाये कि सामने वाला कमज़ोर पड़ रहा है....

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वक़्त के साथ कैसे मायने बदलने लगते हैं. पहले जो अपना घर था जाने कब बिटिया का दादी-घर बन गया. चाहे कुछ भी कह के पुकारा जाए, ये तो अपना ही घर रहेगा हमेशा. क्योंकि न ये सुकून कहीं है और न ही बड़ों का हाथ सर पे होने का विश्वास, फिर चाहे भले ही अब वो शारीरिक तौर पर हमारा सहारा न बन सकें. सुबह जब खिड़की से पहली रौशनी कमरे में आती है तो अलग सा एहसास है, पता नहीं क्यों ऐसा एहसास बैंगलोर में नहीं आता. पिछले बाईस सालों में जाने कितने ठिकाने बदले और हर बार हर शहर पुराना हो गया. पता नहीं भगवान ने मुझे ये वरदान


दिया है या अभिशाप कि एक बार मैं अगर कहीं से आगे बढ़ जाता हूँ तो वापस कभी उस चीज को मिस नहीं करता. फिर चाहे वो कोई जगह हो या इंसान. हाँ जब तक वो साथ हो, पूरी शिद्दत से साथ होता है, इसलिए इससे पहले कि ये शहर भी सिर्फ़ अनछुई याद बन के रह जाये, यहाँ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिता लेने चाहता हूँ. आख़िर ये शहर भी वैसा ही बन जाएगा कुछ सालों बाद....

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मैंने नहीं लिखा प्रेम कई सालों से,
दुनिया में बचा है ना प्रेम,
या विलुप्त हो रहा धीरे-धीरे
ओज़ोन की परत की तरह ..

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कितने भी साल बीत जायें,
कानों में एक आवाज़ है
जो भुलाए नहीं भूलती.
मन करता है पूछूँ,
कैसी हो तुम
ठीक हो न,

फिर लगता है
कहीं तुमने भी
यही सवाल पूछ लिया तो,
तो क्या कहूँगा.
झूठ बोल नहीं पाऊँगा और,
सच बोला नहीं जाएगा. 

इसलिए बिना पूछे,
बता दो ना,
कैसी हो
क्या बिलकुल वैसी
जैसी मिलती थी मुझे हर सुबह

मुस्कुराते हुए…

अधूरी दास्तानें ...

हम अभी अभी ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहाँ अवसाद जैसा कुछ नहीं होता… दुःख होता है जो वक्त के साथ ख़त्म हो जाता है… हम ये बात मानने से इनकार करते हैं कि कुछ लोग हैं, जो इतने सेन्सिटिव होते हैं कि वक्त का मरहम भी उनके घाव नहीं भर पाता… कई बार तो उन्हें खुद एहसास नहीं होता कि वो अवसाद में है… 

एक मनोचिकित्सक जब तह तक जाकर सवाल पूछता है तब एहसास होता है अंदर सब टूटा टूटा सा है… 

सकारात्मक होना ज़रूरी है, लोगों को सकारात्मक होने को कहना भी ज़रूरी है लेकिन कभी कभी ये रास्ता एकतरफ़ा हो जाता है… ऐसे में अगर मरहम लगाने वाला कोई ना हो तो आसान से आसान रास्ते मुश्किल लगते हैं…

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कलम पकड़ता हूँ तो उससे ख़ाली डब्बे की आवाज़ आती है, मेरी सोच जिसने अनंत सम्भावनाएँ लिखी हैं और हज़ारों पढ़ने वालों के मन को उकेरा है अब उस सोच की परतें जैसे जम गयी हैं...


लिखने को इंसान कुछ भी लिख सकता है, पर मुझे पढ़ने वाले जानते हैं कि मेरा फ़ेवरेट genre फ़लसफ़ा रहा है, जिसे लिखते और पढ़ते वक्त ज़िंदगी के कई सफ़हे खुलते हैं. 

2019 में की गई इतने देशों की यात्रा और फिर उसके बाद अचानक से घर में क़ैद हो जाने के दरम्यान बहुत कुछ है जो मैं नहीं लिख पाया... उन कहानियों और संस्मरणों में सौंदर्य था, ज्ञान था, बोझिलता भी थी, कुछ नज़्मों के सिरे अलग हुए, कुछ ग़ज़लें रूठ गई, कुछ नए दौर आए... इन सारी हो रही घटनाओं के बीच एक लेखक ने लिखना छोड़ दिया... 

इस कोरोना काल में जब दुनिया रुकी है, हर दूसरे दिन किसी न किसी का जाने का समाचार सुन रहा हूँ तो, ज़िंदगी से दोस्ती गहरी करनी ज़रूरी है... 

इसलिए खुद का ही लिखा पढ़ना ज़रूरी हो जाता है कभी-कभी... 

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कभी कभी
खुद के चारो तरफ
स्वतः ही
हो जाता है एक शून्य-निर्माण ...
शरीर दिखता भर है और
बस महसूस होती है उसकी गंध
गंध उन बासी साँसों की
जैसे बरसों से पड़े सीले कपड़ों को
दिखा दी हो किसी ने धूप सूरज के पीठ की ...

Tuesday, March 12, 2024

लापता मुसाफिर...

मैं शाम को आऊँगा तुमसे मिलने
वही, हमेशा की तरह
उसी पार्क की उसी बेंच पर.
देर से ही सही,
मैं आऊँगा ज़रूर.

मैंने किया इंतज़ार पर 
तुम लौट गयीं अपने गाँव, 
तुम्हें पता है,
तुम्हारे जाने के बाद
हर पार्क में गया
अकेले बैठा हर उस बेंच पर
जहां हम कभी बैठ जाया करते थे.

हंसा या रोया पता नहीं,
बस बैठा रहा घंटों तक.

एक बात कहनी थी,
हमारे उन सारे वादों की क़सम है तुम्हें,
तुम उदास मत होना
मुझे छोड़ देने के बाद.

मुझे मालूम है
हम मिलेंगे कभी,
कहीं ना कहीं
शायद मरने के बाद
शायद अगले जन्म से पहले,
या फिर शायद अगले जन्म में.

अगर जो ना  मिल पाएं तो,
ये मत सोचना मैं अटका हूँ कहीं,
मैं निकल गया हूँ
वहाँ से बहुत दूर
बस दिल का एक कोना पीछे छूट गया है.

Sunday, April 26, 2020

रुकना क्यूँ है...

स्याह रातें आएँगी,
खूब डराएँगी
पर रुकना क्यूँ है...

होगा अंधेरा घना
अनजानी आवाज़ें आएँगी
पर रुकना क्यूँ है...

बंजर हो ज़मीन
रेत जलाएँ पग को
चुभें भले काँटे
लथपथ हो रक्त से
पर रुकना क्यूँ है...

पिछले रास्ते कैसे थे
आगे के कैसे हों
डर कितना भी हो मन में
पर रुकना क्यूँ है...

मुमकिन है कि
मंज़िल ना मिले
चलने से भी
क़िस्मत तेरी राख हो भले
आग पे चल कर भी
पर रुकना क्यूँ है...

Sunday, December 16, 2018

आवारों सड़कों की मोहब्बत...

उन तंग गलियों में हाथों में हाथ डाले 
जनमती पनपती मोहब्बत देखी है कभी... 

उन आवारा सड़कों पर 
छोटी ऊँगली पकडे चलती ये मोहब्बत... 

उस समाज में जहां सपनों का कोई मोल नहीं, 
ऐसे में एक दूसरे की आखों में 
अपना ख्व़ाब सजाती ये मोहब्बत... 

नाज़ुक सी डोर से जुड़े ये दिल, 
लेकिन आस-पास के कंटीले बाड़ों से 
लड़ती उनकी ये मोहब्बत... 

उनके होठों पर एक कच्ची सी मुस्कान लाने के लिए 
दुनिया भर से नफरत मोल लेती ये मोहब्बत... 

जब लोगों ने अपने दिल में जगह न दी तो, 
सड़कों किनारे बैठे 
आसमां का ख्व़ाब देखती ये मोहब्बत... 

थक जाएँ टहलते हुए तो, 
पार्क के बेचों पर 
बैठने को जगह तलाशती ये मोहब्बत... 

मिलन की उम्मीद जब हताशा में बदल जाए तो 
किसी तन्हा शाम में 
तकिये नम करती ये मोहब्बत... 

इन बंदिशों, रंजिशों से पंगे लेते हुए 
दिल में मासूम एहसास 
संजो कर रखती ये मोहब्बत... 

जब मंजिल लगे धुंधली सी तब भी 
वहाँ तक पहुँचने के 
रास्ते से ही मोहब्बत करती ये मोहब्बत....

जब साथ जवान न होने दिया जाए
तो साथ बूढ़े होने को बेताब ये मोहब्बत...

साल-दर-साल की जुदाई में,
हर ख़त्म होते साल के साथ
अगले साल का इंतज़ार करती ये मोहब्बत...

न किसी महल की ख्वाईश, 
न ही किसी जन्नत की  
हमें मुबारक अपने आवारा सड़कों की ये मोहब्बत...


Sunday, September 02, 2018

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में...

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में,
नफरत से कहीं धीमी...

नफरत इतनी कि
सड़क पर अपनी गाड़ी की
हलकी सी खरोंच पर भी
हो जाएँ मरने-मारने पर अमादा,

और मोहब्बत इतनी भी नहीं कि
अपने माँ-बाप को लगा सकें
अपने सीने से
और कह सकें शुक्रिया...

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में,
नफरत से कहीं धीमी...

मोहब्बत सिगरेट की फ़िल्टर सी है,
नफरत का सारा धुंआ खुद से होकर गुजारती है
सारी नफरत ले चुकने के बाद
हम उस मोहब्बत को ही फेक देते हैं
और कुचल देते हैं
अपनी जूतों की हील से
और नफरत !!
वो तो समा चुकी है हमारे सीने में टार बनके...

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में,
नफरत से कहीं धीमी...

Thursday, March 22, 2018

बस एक बेहतर कल की तलाश में...

मैं घिसता हूँ खुद को हर रोज,
खुद को खुद से आगे निकालना चाहता हूँ,
ये रगड़ एक आग पैदा करती है
मैं अकेला बैठ कर जल जाता हूँ हर शाम उसमें...
थक कर, घायल होकर
सवाल फिर खुद से ही करता हूँ
कि क्या ज़रुरत है इस संघर्ष की
दिल भी कन्धा उचका कर दे देता है जवाब,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

मैं निराश होता हूँ क्यूंकि
मैं वो नहीं बन पाया
जो शायद बनना ज़रूरी था मुझे,
फिर भी मैं हर रोज लड़ता हूँ
निराशा को दरकिनार करता हूँ,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

मेरे पास हर उस कल के सपने हैं,
जो कल नहीं आया अब तक
पता नहीं वो कल कभी आएगा भी या नहीं,
मेरे तले ज़मीं भी रहेगी या नहीं तब तक...

मेरा आज मुझे धिक्कारता है
क्यूंकि मेरा आज कभी आने वाला कल था
जिसकी फ़िक्र मैंने कभी नहीं की
और अब मैं अपना आज गंवा बैठा हूँ
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

ज़िन्दगी से कई सवाल हैं मेरे,
मैं नोटबुक में लिखता रहता हूँ
जो कभी उस दुनिया में कभी सामना हुआ तो
पूछ पाऊं उन सवालों को
फिलहाल तो आज बस मैं सवाल ही लिखता जा रहा हूँ
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

लगता है कि शायद कभी
किसी मोड़ पर गर
पर्दा गिराना हो इस ज़िन्दगी के नाटक से
तो क्या वो भी कर लूंगा मैं,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

Monday, February 27, 2017

ब्लॉग, ज़िन्दगी और मैं... पिछले कई गुज़रे सालों का सफ़र...

आज से 17 साल पहले लिखना इसलिए शुरू हो गया कि किसी को मेरा लिखना बेइंतहा पसंद था, उस वक़्त तो मैं पता नहीं क्या क्या लिख देता था, और वो मुस्कुरा देती थी... जिद्दी थी और पागल भी... सोचता हूँ अगर वो इतनी जिद नहीं करती तो क्या मैं आज इतना सब कुछ लिख भी रहा होता या नहीं... उसका ये एहसान ही रह गया मुझपर, न चुका पाया और न ही भूल पाया... मेरा लिखा हर कुछ बस एक क़र्ज़ के नीचे रह गया.. अगर किसी को भी मेरे लिखे का एक कतरा भी पसंद आये तो मुझे अजीब सा लगता है... मुझे राइटर बनाने की उस एक जिद ने मेरी ज़िन्दगी बदल दी... कहते हैं कि पहला प्यार सबसे हसीं होता है, लेकिन जब पहली बार दिल टूटे तो दर्द भी बड़ा होता है, इतना बड़ा कि उससे उबरने में सालों लग जाते हैं, सदियाँ भी कभी कभी... प्यार लिखते-लिखते अचानक से लिखने में बस दर्द ही बाकी रह गया... उस दौर का हर एक दिन पन्ने पन्ने में संजोया था, उस वक़्त शायद अगर ये ब्लॉग होता तो हर कोई पढ़ पाता... जितना प्यार मैंने उस वक़्त लिखा उतना फिर कभी नहीं लिख पाया, सोचता हूँ कि मैंने प्यार किया ज्यादा या लिखा ज्यादा.... पता नहीं... 

खैर उस डायरी के प्यार को एक दिन राख में तब्दील कर दिया... करीब 3 साल तक फिर कुछ नहीं लिखा एक शब्द भी नहीं... 

फिर 7 साल पहले 2010 में जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था तो सोचा भी नहीं था कि इतना कुछ लिख जाऊँगा... पहला ब्लॉग मज़े मज़े में बना लिया था, नाम रखा "Cyclone of Thoughts..." और पहली पोस्ट डाली "Who is Thakrey..."   :P 

फिर दो पोस्ट और डाली लेकिन ब्लॉग का पता बहुत लम्बा रख लिया था, तो अच्छा नहीं लगता था फिर हद से ज्यादा छोटा करके i555.blogspot.com कर लिया, उस वक़्त अंग्रेजी ब्लॉग्गिंग का भूत था लेकिन अंग्रेजी में कभी लिखा नहीं, हाँ ब्लॉग का नाम ज़रूर अंग्रेजी में था, अब तक हम 'Cyclone' से सीधा 'Whispers' पर आ गए थे... नाम था "Whispers from a Silent Heart... " अच्छी चल निकली थी दुकान, ब्लोगिंग का चस्का लग चुका था... उस वक़्त ब्लॉग पर पहेलियाँ भी खूब चलीं... "पहचान कौन" पहेली के नाम से लोगों को हमारा ब्लॉग पता चला... अच्छा दौर था, पहली बार मेरी पहचान उन लोगों के बीच हो रही थी जिनसे मैं कभी मिला नहीं था, हाँ फ़ोन फ्रेंड, लैटर फ्रेंड (उस वक़्त फेसबुक अब जैसा शक्तिशाली नहीं था.... ) बहुत थे पर अजनबियों के बीच खुद को खड़ा करने का मज़ा ले रहां था मैं... 

खैर वापस ब्लॉग पर आते हैं, मैं उन दिनों कुछ भी अपनी निजी ज़िन्दगी के बारे में नहीं लिखता था... सच कहूं तो डर लगता था कि लोग पढेंगे तो क्या सोचेंगे, वही डर जिसने पूरी दुनिया को अपंग बना रखा है.. इसी दौरान मेरा वो ब्लॉग एक दिन अचानक से गायब हो गया, उस वक़्त लगा था कि हैक हो गया है लेकिन अब जब मैं खुद साइबर सिक्यूरिटी में हूँ तो लगता है कुछ और ही हुआ होगा... सारी पुरानी पोस्ट गायब अचानक से ख़त्म हो गयी थी, और मैंने कुछ संजोया भी नहीं था... प्रशांत भैया ने कुछ पोस्ट्स अपने फीड रीडर से निकाल के दीं, हालाँकि जब मैंने उनको पढ़ा तो लगा जाने क्या बकवास लिखा था.... मेरे लिए शायद ये वेक अप कॉल था, मैं एक ब्लॉगर की तरह लिख रहा था जबकि मैं एक लेखक की तरह लिखना चाहता था... नया ब्लॉग बनाया और फिर से लिखना शुरू किया, पहले से कुछ अलग ये सोचे बिना कि कोई इसे पढ़ भी रहा होगा... 

पता नहीं, वो बेहद उदास शाम थी जब मैंने बेपरवाही के साथ अपनी ज़िन्दगी का एक पन्ना खोल के ब्लॉग पर लगा दिया... पता नहीं कितने लोगों ने पढ़ा, खुद से रिलेट किया लेकिन पहली बार मुझे ब्लॉग पर कुछ लिखकर अच्छा सा लग रहा था, फिर मैंने अपने बारे में, अपनी ज़िन्दगी के बारे में बहुत कुछ लिखा... लोग क्या कहेंगे वाला डर निकल गया था, हालाँकि ये लगता था कि कोई घर से न पढ़ ले... बहुत कुछ लिखा उस दरमयान... 

2011-2012 मेरी ज़िन्दगी के सबसे उथल-पुथल वाले सालों में से रहा, उन दिनों मैंने बहुत कुछ पाया... ढेर सारा लिखा, उन दिनों ज्यादा लिखने की वजह भी बहुत ख़ास थी... जबकि आपको पता हो आपके ठीक पीछे बैठ के कोई ब्लॉग के पोस्ट होने का इंतज़ार कर रहा हो... सच में प्यार से ज्यादा खूबसूरत वो वक़्त होता है जब प्यार हो रहा होता है... प्यार किसी भी वक़्त हो, किसी भी उम्र में हो लेकिन जब ये हो रहा होता है न हम एक टीनएजर से ज्यादा कुछ नहीं होते... मैंने उस वक़्त अपनी ज़िन्दगी में जो भी सोचा, जो भी किया सब कुछ लिखा, शायद सिर्फ इसलिए कि मेरे पीछे बैठी अंशु पढ़ सके उसे... उसे पीछे से झाँकने में इसके लिए मैंने क्लास में अपनी सीट पीछे कर ली थी... कमाल है न, इसी ब्लॉग से उसने मुझे जाना, इसी ब्लॉग पर मैंने उससे बातें कीं, यहीं प्यार का इज़हार भी कर दिया... 

सच कहूं तो मैंने खुद के लिए बहुत कम ही लिखा, पहले किसी और के लिए लिखा करता था और फिर किसी और के लिए... हाँ लिखने के लिए कुछ "push" तो चाहिए ही होता है न...

आजकल यहाँ कम ही लिखता हूँ, मैं वापस उसी डर में चला गया हूँ कि लोग पढेंगे तो क्या कहेंगे... :)

Monday, December 05, 2016

स्पोर्ट्स शूज़ पहनने वाली लड़कियां...


जूता भी मस्त चीज बनायी है इंसानों ने... मुझे लगता है इंसानी शरीर का सबसे मज़बूत हिस्सा पैर ही होता है लेकिन सबसे ज्यादा सुरक्षा भी पैरों के लिए ही ज़रूरी पड़ी... आखिर इस असमान ज़मीन को रौंदते हुए आगे बढ़ना ही तो ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा है... 

खैर, मेरा और जूतों का रिश्ता बड़ी देर से शुरू हुआ... हम ठहरे बिहार के एक छोटे से शहर के सरकारी बोर्ड के विद्यार्थी तो न ही कोई अनिवार्यता थी न ही कोई ज़रुरत... और तो और मुझे जूते पसंद भी नहीं थे, ऐसा लगता था जैसे बाँध दिया हो किसी ने पैरों को... जब पांचवीं में मेरा एडमिशन छोटे से अंग्रेजी स्कूल में कराया गया तो जूते की मजबूरी आन पड़ी, बड़ा मुश्किल दौर था... अकसर मैं क्लास में जूते उतार कर बैठता और पैरों को सांस लेने लायक हवा मिल जाती... अलबत्ता लडकियां जूतियाँ पहनती थीं, जो मुझे लगता था कि फीते वाले जूतों से ज्यादा आरामदेह होती होंगी.... वो चमड़े के जूतों का दौर था, स्पोर्ट्स शू नाम की चिड़िया ने शायद तब तक छोटे शहरों में सांस नहीं ली थी, बहुत हुआ तो कपड़े के PT शूज पहनते थे लोग... TV पर लोग दिखते स्पोर्ट्स शूज पहने हुए, एकदम चमक सफ़ेद भारी भरकम से.. देखने से ही ऐसे थे कि पहनने का कभी सोचा भी नहीं... 7वीं से हम फिर से सरकारी स्कूल में आ गए और फिर से हमने जूतों को अलविदा कह दिया... बिना जूतों के भी ज़िन्दगी मज़े में चलती रही... कभी कभार सर्दियों में बैडमिंटन मैच के लिए PT शूज पहनने की मजबूरी थी वो भी एक आध घंट एके लिए... 

इंजीनियरिंग में जब मैं हिमाचल रहने पहुंचा तो शायद पहली बार मैंने किसी लड़की को स्पोर्ट्स शूज पहने देखा... एक दो क्या लगभग सभी ने स्पोर्ट्स शूज ही पहने थे... हिमाचल की चढ़ाई-उतराई के लिए शायद वही जूते सही होंगे, उसपर से इतनी ठण्ड... लड़कियों के वो ज्यादातर गुलाबी या नीले स्पोर्ट्स शूज बड़े मस्त लग रहे थे, और जिस तरह से वो लडकियां एकदम आजादी के साथ तेज़ चलते हुए हिमाचल की पहाड़ी सड़कों पर चलती थीं ऐसा आत्मविश्वास मैं आज तक कभी किसी लड़की में नहीं देखा था... बिहार की लडकियां तो सलवार सूट पहने बाटा की सैंडल में धीमे क़दमों से चला करती थीं... 

मैंने भी उन्हीं दिनों अपने लिए स्पोर्ट्स शूज ख़रीदे थे, पहली बार पहना तो अक्कच जैसा लगा लेकिन जब एक दो दिन उसे पहनकर इधर उधर किया तो खुद के अन्दर भी आत्मविश्वास जैसा महसूस हुआ... उस दिन से जूतों की ऐसी आदत लग गयी जो आज तक नहीं छूटी...

तो क्या बस जूते भर पहन लेने से आत्मविश्वास आ जाता है, शायद नहीं... पर जहां तक मैंने Observe किया है, Regularly स्पोर्ट्स शूज पहनने वाली लड़कियों बाकी लड़कियों से ज्यादा confident होती हैं, कुछ तो मनोविज्ञान होता ही होगा... बहुत कम लडकियां हैं जो अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में जूते पहनती हैं, कारण कई हो सकते हैं... अभी पिछले साल की बात है जब Chembra Peak की ट्रैकिंग पर गया था वहां ज्यादातर लड़कियों ने सैंडल, फ्लोटर्स और कुछेक ने तो हील्स भी पहने थे... वो फिसलन भरी मुश्किल ट्रैकिंग करते वक़्त आस-पास कैसा नज़ारा होगा इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते.... क्या इतना मुश्किल होता है अपने Daily Routine में एक अदद जूते को शामिल करना, पता नहीं...

खैर, इसमें कोई दो राय नहीं कि वो लडकियां मुझे अलग से दिख जाती हैं क्यूंकि वो शूज उन्हें सर झुका कर छुईमुई झुण्ड में चलने वाली लड़कियों से अलग करते हैं... वो बिंदास चलती हैं, कैसे भी रास्तों पर बिना लडखडाये... ज़रुरत पड़े तो दौड़ भी लगाती हैं लिफ्ट को रोकने के लिए... दौड़ते वक़्त कमर सीधी होती है और हाथ भागते हैं यूँ आगे पीछे एक रनर की तरह.... स्कूटी की बजाय बाइक चलाना पसंद करती है और उन जूतों के साथ वैसे ही किक मारती हैं जैसे दुनिया को एक मेसेज देना हो, कैपिटल लेटर्स में... उनके कदम छोटे छोटे नपे तुले नहीं होते, ये लम्बे लंबे डग होते हैं उन लड़कियों के... वो स्पोर्ट्स शूज पहनने वाली लडकियां.... 

Monday, January 19, 2015

नींद जो ख़्वाब में आती है...

जागती आँखों के सपने
अक्सर मुझे परेशान करते हैं,

मैं सोना चाहता हूँ
हवा में औंधे मुंह किए
गुरुत्वाकर्षण के नियम के खिलाफ,
चाहता हूँ कि
ख़्वाब में आए नींद का झरोखा कोई,
घड़ी का चलना भी
डायल्यूट हो जाये
मेरी साँसो की तरह...

खुद से लड़ते झगड़ते हुये
कई बातें जो मैं भूल चुका हूँ
उन बातों की अधूरी लिस्ट को भी
Shift+Delete कर देना चाहता हूँ,

अगर जो सुकून और खुशी
अब इन कंक्रीट के जंगलों में ही
मिलते हों तो,
डूबते हुये नारंगी सूरज का जो लम्हा
कैद है मेरी इन आँखों में 
उसे भी मैं इन ऊंची इमारतों के अंदर ही
जमा देना चाहता हूँ सीमेंट से
हमेशा हमेशा के लिए... 

Monday, October 13, 2014

इस तन्हा शाम का विलोम तुम हो...

इन पेचीदा दिनों के बीच,
आजकल बिना खबर किए ही
अचानक से सूरज ढल जाता है,
नारंगी आसमां भी बेरंग पड़ा है इन दिनों...

इन पतली पगडंडी सी शामों में
जब भी छू जाती है तुम्हारी याद
मैं दूर छिटक कर खड़ा हो जाता हूँ...
क्या करूँ
तुम्हारे यहाँ न होने का एहसास
ऐसा ही है जैसे,
खुल गयी हो नींद
केवल बारह मिनट की झपकी के बाद,
इस बारह मिनट में मैं
तीन रेगिस्तान पार कर आता हूँ,
रेगिस्तान भी कमबख्त
पानी के रंग का दिखता है...

तुम्हारी याद भी एक जादू है,
उन नीले रेगिस्तानों में
मटमैले रंग के बादल चलते हैं....

इससे पहले कि इसे  पढ़ कर
तुम मुझे बावरा मान लो,
चलो इस शाम का
विलोम निकाल कर देख लेते हैं,

इस बारह मिनट की झपकी के बदले
तुम्हारी गोद में मिले सुकून की नींद
जहां बह रहे हैं
ये तीन नीले रेगिस्तान
वहाँ झील हो तुम्हारे आँखों की
और इन मटमैले बादलों के बदले
तुम्हारी उन काली ज़ुल्फों का घेरा हो...

इस तन्हा शाम का विलोम बस तुम हो...
आ जाओ कि,
ज़िंदगी फिर उसी लम्हे से शुरू करनी है
जहां तुम इसे छोड़ कर चली गयी हो...

अब ये मत कहना कि
ये नज़्म मुकम्मल नहीं,
आखिर तुम्हारे बिना कुछ भी
पूरा कहाँ हो पाया है आज तक....

Saturday, May 03, 2014

रंग बदलते रहते हैं....

मुद्दतों बाद ज़िंदगी की किताब के कुछ पन्ने तिलमिला से रहे हैं... कहते हैं आप अपने दर्द को कितना भी जला दें उसका धुआँ साथ ही चलता रहता है, कभी भी घुटन पैदा कर सकता है... ज्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है जब गाढ़ी रूमानियत में डूबे कुछ लफ्ज रोपता रहता था सूखी पड़ी अलमारियों पे... यूं डूब कर लिखना तब शुरू किया था जब मेरी किताब के कुछ पन्ने हमेशा-हमेशा के फाड़ दिये थे तुमने.... न जाने तुम्हारे लिए कैसे इतना आसान हो गया, यूं मुँह फेर लेना... न कुछ समझ आया और न ही तुमसे कोई जवाब ही मांगा आज तक, कई सालों तक मेरे कमरे की अधखुली अलमारी में से वो तोहफा झाँकता रहा जो खरीद रखा था किसी खास दिन के लिए... एक दिन यूं ही जब नाहन* की नारंगी शामों के साये में मेरे मकान के पास वाले नुक्कड़ पर कभी एक पहाड़ी गीत सुन लिया था, समझ तो कुछ नहीं आया लेकिन इतना दर्द जैसे कोई बादल फट पड़ा हो किसी अंजान खाई के ऊपर... बर्फ की चादर पर कई सारी यादें तना दर तना उखड़ती चली गईं... 
वक़्त अब बीत चुका है, मैं बहुत आगे निकल आया और शायद तुम भी... हाँ कुछ लम्हों से आज भी कुछ यादें झरती रहती हैं, लेकिन सच बताऊँ तो विश्वास नहीं होता कि कभी तुम्हारे जैसा भी कोई था मेरी ज़िंदगी में... अच्छा ही हुआ तुमने उतार लिया अपने अस्तित्व का बोझ मुझपर से...
आज जब कनखियों से अपनी ज़िंदगी को देखता हूँ तो तुम कहीं नज़र नहीं आती, बस एक चेहरा दिखता है जिसने अचानक से आकर ज़िंदगी को करीने से सज़ा दिया है... तुम्हें पता है हम अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते रहते हैं, बिना मतलब ही यूं ही... लेकिन इसी झगड़े के बीच हमारा प्यार बूंद-बूंद पनपता रहता है, हथेलियों से समेटने की कोई कोशिश नहीं... मुस्कुराहटें आती रहती हैं और इसबार उन उसकुराहटों का रंग अलग सा दिखता है... मैं खुश हूँ सच में बहुत खुश... जब भी गौर से उसकी आखों में देखूँ न तो बस लगता है मानो कह रही हों.... मुझे तुमसे प्यार है....
शायद यही ज़िंदगी है... शुक्रिया ज़िंदगी.... शुक्रिया मुझे यूं जगाए रखने के लिए, मेरी दुआओं को हर उस जगह पहुंचाते रहना जहां से मेरे लिए दुआएं निकलती रहती हैं....
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*नाहन: एक खूबसूरत सा शहर हिमाचल का

Tuesday, January 28, 2014

मुझे अपना समंदर चुनने की आज़ादी तो है न...

अच्छा लिखने की पहचान शायद यही होती होगी कि किस तरह छोटे छोटे पहलुओं को एक धागे में पिरो कर सामने रखा जाये... मैं पिछले कई दिनों से कितना कुछ लिखता हूँ, जब भी मौका मिलता है शब्दों की एक छोटी सी गांठ बना कर रख देता हूँ,लेकिन इन गाठों को फिर एक साथ बुन नहीं पाता, दिमाग और दिल के चरखे इन  गांठ लगे शब्दों को संभाल नहीं पाते.... कई-कई ड्राफ्ट पड़े रहते हैं बिखरे बिखरे से....
शायद अच्छी ज़िंदगी भी इसी तरह बनती होगी न, छोटे-छोटे रिश्तों और खुशियों को आपस में पिरोकर !!! लेकिन मैं तो वो भी नहीं कर पाता, किसी को भी ज़िंदगी के धागे में पिरोने से डर लगता है, शायद वो इस बेढब खांचे में फिट न हो तो... एक अकेले कोने में यूं बैठा गाने सुनते रहना चाहता हूँ, सोचता हूँ, ज़िंदगी यूं ही निकल जाये तो कितना बेहतर है....

ज़िंदगी के कई सिमटे-सिकुड़े जज़्बात हैं जो यूं कह नहीं सकता...  अलबत्ता शब्दों की कई गाठें बिखरी पड़ी थीं, लाख कोशिश की पर जोड़ न सका तो कुछ को यूं ही रैंडमली चुन के उठा लाया हूँ....

********
गरीबी सिर्फ सड़कों पर नहीं सोती,
कुछ लोग दिल के भी गरीब होते हैं
अक्सर उनके बिना छत के मकानों में
आसमां से दर्द टपकता है.... 

********

हर सुबह एक बेरहम बुलडोजर आता है,
सपनों के बाग को रेगिस्तान बना जाता है... 

********
सुन ए सूरज,
थोड़ा आलस दिखा देना इस बरस 
तेरे आगे आने वाले कोहरे में
गुम हो जाना है सदा-सदा के लिए...

********

यहाँ हर किसी की अपनी व्यथाएँ हैं,
तभी शायद सभी को 
दूसरों का रोना शोर लगता है.... 

 ********

कुछ कहानियाँ मैं बिना पढे ही
बीच में अधूरा छोड़ आता हूँ,
कुछ चीजें अधूरी ही बड़ा सुख देती हैं....

********

जाने क्यूँ आज कांप रहे हैं हाथ मेरे,
तुम्हारे सपनों के बाग
डरा से रहे हैं मुझे,
कैसे इन रंग-बिरंगे सपनों पर 
मैं अपने गंदले रंग के खंडहर लिख दूँ... 

********

मैंने तुम्हारे समंदर भी देखे हैं,
नीले रंग के
दूर-दूर तक फैले हुये,
कई लहरें आती हैं उमड़ती हुयी
और किनारों पर आकर लौट जाती हैं....
एक समंदर और है मेरे अंदर कहीं,
जो हर लम्हा हिलोरे मारता है,
उसका कोई किनारा नहीं,
उसकी सारी नमकीन लहरें
मैं भारी मन से पी जाया करता हूँ, 
मुझे अपना समंदर चुनने की आज़ादी तो है न... 

Wednesday, November 13, 2013

मैं उसका शहर छोड़ आया था...

कभी जब छुट्टियों में
लौटता हूँ उस शहर को
तो वो नुक्कड़ मुझे
बेबस निगाहों से
ताक लिया करता है...
उस पुरानी इमारत पर
पड़ चुकी काई 
मुझे देख फिसल सी जाती है,
वो गलियां अब मुरझा गयी हैं
वो खिड़की भी अब
अधखुली सी ऊँघती रहती है...
दिल करता है कभी
पूछूँ इस खस्ता सी चाँदनी से
क्या अब भी हर शाम
वो खिड़की खुलती है...
क्या झाँकता है कोई
अब भी उस खिड़की से...

 

Tuesday, September 24, 2013

देह के खरीददार...

सूरज धीरे-धीरे अपने गंतव्य की तरफ बढ़ रहा है... हम भी धीरे थके क़दमों से उस तरफ बढ़ रहे हैं, जिधर से चांदनी भी बच कर निकल लेना चाहती है... ये वो बदनाम रास्ते हैं जिसके उसपार भी जीवन बसता है... खिडकियों और अधखुले दरवाजों के पीछे से कई सूनी आखें नज़र आती हैं... उन खिडकियों और दरवाजों की भी ज़रुरत बस इतनी है कि वहां से इशारे देकर खरीददारों को बुलाया जा सके... मिलता होगा सुकून यहाँ आकर कई लोगों को भी, जाने कैसे होंगे वो लोग जिनकी जवानियाँ मचलती होंगी ये देखकर, लेकिन ये नज़ारा मुझे तो जैसे टूटा खंडहर कर गया.. भले ही इन स्याह गलियों की रातें रंगीन होती हों लेकिन ये रंग मेरे अन्दर की सफेदी को तार तार कर गया... मुझे वो अधनंगा जिस्म कीचड़ में लिपटा जान पड़ता है...

ऐसे मंज़र देखकर किसी का भी दिल छलनी हो जाये... वो कहते हैं सरकार इनकी हालत में बेहतरी के लिए कई योजनायें चलाती रहती है.... और फिर हम NGO वाले भी हैं ही... साफ सफाई के तरीके समझाकर और दवाई-कंडोम बांटकर जितना हो सके हम मदद करने की कोशिश कर रहे हैं... मैंने उनसे पूछा अगर इनके हाल की इतनी ही फिकर है सरकार को, तो इस धंधे को बंद क्यूँ नहीं करवा देती... उनके चेहरे पर खामोशी की एक शिकन उभर आई, कंडोम के पैकेट समेटते हुये बमुश्किल अपनी गंभीरता को मोड़ते हुये उन्होने कहा, सरकार ये नहीं करा सकती... उसके बस में कुछ नहीं...आखिर समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए वेश्या का होना ज़रूरी है... मैं निरुत्तर था, भले ही शायद मेरी उस उम्र की समझ के हिसाब से ये कोई दार्शनिक जवाब था, लेकिन मैं इसके पीछे इंसानी चमड़ी के अंदर छुपे भूखे भेड़ियों का स्वार्थ ज़रूर देख पा रहा था... वेश्या !!! एक ऐसा शब्द जिसको सुन कर सभी की नाक-भों सिकुड़ जाती हैं... एक घृणित नज़र, एक गंदी सोच, चलो कुछ संवेदनशील इंसान भी रहा तो कुछ पवित्र तो नहीं ही सोच पाता होगा....

खैर, हम कंडोम और दवाइयों का पैकेट उठाकर दूसरे कोठे की तरफ बढ़ गए... दरवाजे पे ही एक लड़की थी...  देखने से करीब 21-22 के आस पास...हमने उसे कुछ दवाइयाँ और कंडोम के कुछ पैकेट दिये... उसने कहा वो तो हर रोज़ दवाइयाँ खाती है... 
"कौन सी.... " 
वो अंदर गयी और एक दवाई की स्ट्रिप ले आई उठाकर...
"ORADEXON.... "' 
"ये कौन सी दवाई है ???"
"वो मेरे को नहीं पता, आंटी ये पैकेट देकर जाती है तो मैं खा लेती है... एक साल से खा रही है मैं .... "
मेरे एक साथी ने वहीं मोबाइल में गूगल पर सर्च करके जब दिखाया तो शरीर कांप गया था मेरा... हमने तुरंत पूछा...
"उम्र क्या है तुम्हारी ????"
"वो पता नहीं है मेरे को, लेकिन सब कहते हैं जभी "दिलवाले दुलहनियाँ ले जाएँगे..." आई थी न, तभी मुझे भी कोई छोड़ गया था इधर... " 
DDLJ मतलब 1995, यानि कि महज 14 साल... 
पता चला यहाँ कई लड़कियां 13-14 साल की उम्र से ही ये टैबलेट लेती हैं, इस टैबलेट की सप्लाई बांग्लादेश से आती है शायद...  
दरअसल ये टैबलेट कम उम्र की लड़कियों को भरा-पूरा बनाने के लिए यूज किया जाता है... जिससे वो लड़कियां बड़ी दिखने लगें... गोश्त बढ़ाने के लिए ताकि उन भेड़ियों को पसंद आए... उनकी सेहत के साथ इतना भद्दा खिलवाड़ उनके लिए जिनको सभ्य बनाए रखने की बात कुछ देर पहले मेरे साथी कर रहे थे...
"मुझे नहीं पता किस तरह के लोग वेश्याओं के पास क्या तलाशने जाते हैं, संवेदनहीनता की इंतिहा ही है ये... " और वो कहते हैं सभ्य बनाने के लिए... क्या उन लोगों को खुद के चेहरे पर थूक के छींटे महसूस नहीं होते.... मुझे तो कभी-कभी इंसान होने पर भी जिल्लत महसूस होती है...   

Monday, August 19, 2013

कुछ सिलवटें खुली हैं ज़िन्दगी की...

ये दुनिया फरेबी है बहुत और हम हर किसी पर ऐतबार करते जाते हैं... कोई कल कह रहा था एक नीले रेगिस्तान से बारिश की बूँदें टपकती हैं,  आखें बंद करके महसूस करने की कोशिश की तो ऐसा बवंडर आया जो मेरे कई सपनों को रेत के ज़र्रे की तरह उड़ा कर ले गया... सेहरा की गीली रेत पर कुछ लिखने का जूनून अब जाता रहा है उस बवंडर के बाद.... ए खुदा ये क्या आवारगी लिख दी है तुमने बादलों की छत पर... जब भी मेरा दिल उदास होता कमबख्त बरस पड़ते हैं मुझ पर ही... न जाने कैसे सुन लेता वो मेरी उदासियों को भी लेकिन मेरी जेब में खामोशी का एक जंगल है, उसको ये बेवजह की बारिश पसंद नहीं...बारिश की इस नमी के कारण ख़ामोशी का कुरकुरापन चला जाता है, और ख़ामोशी की आवाजें भी खो जाती हैं... कल मैं काफी देर तक बारिश की बूंदों से बातें करता रहा, उनसे कहानियाँ सुनी ढेर सारी... कुछ समंदर की, नदियों की, बादलों की और उस महक की भी जब वो बूँदें जलती हुयी जमीन से गले मिलती हैं... कितनी अजीब बात है न, बारिश के बूंदों की कोई महक नहीं होती है और न ही उस मिटटी की लेकिन दोनों का मिलन ज़न्नत की सी खुशबू बुन देता है...

नवम्बर की उस बारिश में भीगते हुए
तुम्हारे लिए कुछ आसूं भी बहाए हैं हमने,
जब कर दिया था बेपर्दा तुमने मेरे नाज़ुक से सपनों को
रोते हुए दो ख़त तुम्हारे भी जलाए हैं हमने...

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अपने मेज की दराज में कुछ पुराने पते टटोलता हूँ... बीती रात का चाँद जाते-जाते अपना पता छोड़ गया था, अपनी नयी किताब में चांदनी से कुछ शब्द जगाने हैं... चांदनी की स्याही सफ़ेद ही होगी न, चमकती हुयी सी... मेरी दिली ख्वाईश है कि  इस किताब को पढने के लिए रौशनी के होने की बंदिश न रहे... अँधेरे में कहानियाँ अपनी सी लगने लगती हैं और हम अगल-बगल के अन्धकार से दूर उन लफ़्ज़ों की रौशनी में डूब जाते हैं...
किसी ख़ुशमिज़ाज ने ही लिखा होगा चाँद की इस बला सी खूबसूरती को... मैं बैठा हूँ मुंडेर पर और जला रहा हूँ उस चाँद को कि कुछ नज्में लिख दूं अपनी किताब के लिए, लेकिन ये झुलसा हुआ चाँद कभी-कभी तंदूर की अधजली रोटी की तरह लगता है... गुलज़ार ने यूँ ही थोड़े न कहा है कि...

मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने,

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे...

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दिन ढल गया है लेकिन शाम नहीं आई अभी तक, उस पहाड़ के पीछे वाले गावं ने रोक लिया है सूरज को डूबने से... कुम्हारों ने कुछ गमले बनाये हैं, आज ही पकाकर बेचना है बाज़ार में... कुछ पैसे आ जाएँ तो जलेगा चूल्हा, सुना है उनके घर में खाना नहीं बना सुबह से कुछ... कुछ बच्चों की भूख टंगी है आसमान में, उस सूखे सूरज और गीले से चाँद के बीच... 

वो नुक्कड़ का बनिया अब उधार नहीं देता,
बच्चे वहां बिकती मिठाई को देख ललच से जाते हैं,

भूख बिकती है बाज़ार में पर खाना नहीं मिलता...

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Sunday, March 17, 2013

जीवन झांकता है...

नवम्बर की सर्दी कुछ ख़ास नहीं और यहाँ कोलकाता में तो बिलकुल भी नहीं... सुबह के ९ बज रहे हैं, यूँ ही भटकने निकल पड़ा हूँ, बाकी के साथी आगे निकल चुके हैं... मुझे तेज़ चलने का कोई मोह नहीं... सड़क के किनारे कई टूटी-फूटी झोपड़ियां जैसे एक-दूसरे के ऊपर गिरने वाली हों... एक तरफ जहाँ हम 2BHK-3BHK की दौड़ में लगे हैं वहीँ एक 10 बाय 8 के कपडे के टेंटनुमा मकान में एक पूरा परिवार खुद को समेटने की कोशिश कर रहा है... साथ ही कोने में रखी माँ दुर्गा की मूर्ति इस बात का भी एहसास दिलाती है कि उन्हें अब भी भरोसा है उस शक्ति पर... मेरे अन्दर काफी देर तक एक सन्नाटा छा जाता है.. इन स्लम के खंडहरों के नेपथ्य में दिखता एक अन्डर कंस्ट्रक्शन एपार्टमेंट मुझपर थूकता हुआ जान पड़ता है...

किसी फुटपाथ पर
सड़क के किनारे बनी
कई झोपड़ियों के 
चूल्हे पर चढ़े
खाली हांडियों से, 
उन काली-मटमैली
काया पर लिपटे
फटे हुए चीथड़ों से,
वो मिटटी के फर्श पर
लेटा हुआ लाचार
जीवन झांकता है...

सूरज धीरे-धीरे अपने गंतव्य की तरफ बढ़ रहा है... हम भी धीरे थके क़दमों से उस तरफ बढ़ रहे हैं, जिधर से चांदनी भी बच कर निकल लेना चाहती है... ये वो बदनाम रास्ते हैं जिसके उसपार भी जीवन बसता है... खिडकियों और अधखुले दरवाजों के पीछे से कई सूनी आखें नज़र आती हैं... उन खिडकियों और दरवाजों की भी ज़रुरत बस इतनी है कि वहां से इशारे देकर खरीददारों को बुलाया जा सके... मिलता होगा सुकून यहाँ आकर कई लोगों को भी, जाने कैसे होंगे वो लोग जिनकी जवानियाँ मचलती होंगी ये देखकर, लेकिन ये नज़ारा मुझे तो जैसे टूटा खंडहर कर गया.. भले ही इन स्याह गलियों की रातें रंगीन होती हों लेकिन ये रंग मेरे अन्दर की सफेदी को तार तार कर गया... मुझे वो अधनंगा जिस्म कीचड़ में लिपटा जान पड़ता है... कहते हैं समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए वेश्या का होना ज़रूरी है... जाने ये कैसी सफाई है जिसे बनाये रखने के लिए हर रात कई औरतें और लडकियां किसी अनजान भेड़िये का खाना बनती हैं... मैं फिर से अपने चेहरे पर थूक के कुछ छीटे महसूस करता हूँ...

लाल-नीली-पीली
चकमकाती बत्तियों के पीछे
उन अधखुली खिडकियों से
कुछ इशारे बुलाते
नज़र आते हैं,
सब देखते हैं
ललचाई आखों से
उन चिलमनों के पीछे
अधनंगे मांस की तरफ...
उन रंगीन कहे जाने वाले
रंडियों के कोठे से
एक नंगा-बेबस
जीवन झांकता है...

Saturday, December 08, 2012

ये सर्दियां और तुम्हारे प्यार की मखमली सी चादर...

आज मौसम ने फिर करवट ली है, ज़रा सी बारिश होते ही हवाओं में ठण्ड कैसे घुल-मिल जाती है न, ठीक वैसे ही जैसे तुम मेरी ज़िन्दगी के द्रव्य में घुल-मिल गयी हो... तुम्हारी ख़ुशबू का तो पता नहीं लेकिन तुम्हारा ये एहसास मेरी साँसों के हर उतार-चढ़ाव में अंकित हो गया है... आज शाम जब ऑफिस से निकला तो ठंडी हवा के थपेड़ों ने मेरे दिल पर दस्तक दे दी... इस ठण्ड के बीच तुम्हारे ख्यालों की गर्म चादर लपेटे कब घर पहुँच गया पता ही नहीं चला...

ऐसा नहीं है कि मैंने बहुत दिन से तुम्हारे बारे में कुछ लिखा न हो, लेकिन जब भी तुम्हारा ख्याल मेरे दिलो-दिमाग से होकर गुज़रता है, जैसे अन्दर कोई कारखाना सा चल पड़ता है, और ढेर सारे शब्द उचक-उचक कर कागज़ पर उतर आने के लिए बावरे हो जाते हैं... वैसे तो मैं हर किसी चीज से जुडी बातें लिखता हूँ लेकिन अपने लिखे को उतनी शिद्दत से महसूस तभी कर पाता हूँ जब कागज़ पर तुम्हारी तस्वीर उभर कर आ जाती है, गोया मेरी कलम को भी अब तुम्हारे प्यार में ही तृप्ति मिलती है...

शाम को जब तुम्हें जी भर के देखता हूँ तो सुकून ऐसा, मानो दिन भर सड़कों पे भटकने के बाद किसी ने मेरे पैरों को ठन्डे पानी में डुबो दिया हो, सारा तनाव, सारी परेशानियां चंद लम्हों में ही काफूर हो जाती हैं और बच जाता तो बस तुम्हारे मोहब्बत का वो मखमली एहसास... तुम्हारे साथ हमेशा न रह पाने का गुरेज़ तो है लेकिन इस बात का सुकून भी है कि मैं तो कबका तुम्हारी आखों में अपना आशियाना बना कर तुम्हारी परछाईयों में शामिल हो चुका हूँ....

तुम्हें पता तो है न
मेरी ख्वाईशों के बारे में
ख्वाईशें भी अजीब हैं मेरी,
कि चलूँ कभी नंगे पाँव
किसी रेगिस्तान की
उस ठंडी रेत पर ,
हाथों में लिए तुम्हारे
प्यार के पानी से भरा थर्मस...
काँधे पर लटका हो
तुम्हारा दुपट्टा
और उसके दोनों सिरे की पोटलियों में
बंधी हो तुम्हारे आँगन की
वो सोंधी सी मिटटी,
उसमे हो कुछ बूँदें
तुम्हारे ख़्वाबों के ख़ुशबू की,
दो चुटकी तुम्हारे इश्क का नमक
और ताजगी हो थोड़ी 
गुलाब के पंखुड़ियों पर
ढुलकती ओस के बूंदों की...
सच में
ख्वाईशें भी अजीब हैं मेरी...

तुम्हें पता भी है हमारा प्यार किस सरगम से बना है, किसी सातवीं दुनिया के आठवें सुर से... जो तुम्हारे दिल से निकलते हैं और मेरे दिल को सुनाई देते हैं बस... और किसी को कुछ सुनाई नहीं देता... बाहर बारिश की कुछ बूँदें आवाज़ लगा रही हैं, आओ इन गीली सड़कों पर धीमे धीमे चलते हुए अपने क़दमों के निशां बनाते चलते हैं... तुम्हारे एहसास के क़दमों के कुछ निशां इस दिल पर भी बनते चले जायेंगे... ताउम्र तुम्हारा एहसास यूँ ही काबिज़ रहेगा इस दिल पर...

Saturday, December 01, 2012

कहो तो आग लगा दूं तुम्हें ए ज़िन्दगी...

कभी कभी मुझे लगता है लिखना एक बीमारी है, एक फोड़े की तरह.. या फिर एक घाव जो मवाद से भरा हुआ है... जिसका शरीर में बने रहना उतना ही खतरनाक है, जितना दर्द उसको फोड़कर बहा देने में हो सकता है.. कभी अगर डायरी में लिखने का मन करता है तो घंटों डायरी के उस खाली पन्ने को निहारता रहता हूँ... फिर मन मार कर कुछ लिखने बैठता हूँ, लिखने की ऐसी कोई महत्वाकांक्षा नहीं, बस उस पन्ने की पैरेलल खिची लाईनों के बीच अपने मुड़े-तुड़े आवारा ख्यालों का ब्रिज बनाते चलता हूँ... खुद से लड़ता-झगड़ता हुआ हर एक वाक्य उन पन्नों पर उतरता जाता है... दूसरे जब मेरा लिखा पढ़ते हैं तो उनकी नज़र में, लिखना किसी फंतासी ख़याल जैसा मालूम होता है, लेकिन असल में ये एक रगड़ की तरह है... जब कोई सूखी पुरानी लकड़ी अचानक से आपके गालों पे खूब जोड़ से रगड़ दी जाए, इसी जलन और दर्द की घिसन के कुछ शब्द निकलकर चस्प हो जाते हैं कागजों पर... कागज़ बेजान होते हैं लेकिन वो दर्द बेजान नहीं होता... 

उस कागज़ पर मेरी बेबसी छप आई है, एक कायरता, खुद से भागते रहने की पूरी कहानी... ऐसी कहानी जिसे अगर खुद दुबारा पढ़ लूं तो खुद को आग में झोक देने का दिल कर जाए... ऐसे में कभी कभी गुस्सा भी बहुत आता है कि मैं सिगरेट क्यूँ नहीं पीता, दिल करता है ८-९ सिगरेट एक बार में ही पी जाऊं, चेन स्मोकर टाईप... हर कश के धुएं के साथ अपने आंसू की हर एक बूँद को भाप बना कर उड़ा दूं...  बाहर से न सही तो कम-से-कम अन्दर से धुंआ-धुंआ कर दूं अपने शरीर को... कागज़ के पन्ने पर फैले उस कचरे के ढेर को चिंदी चिंदी कर हवा में उड़ा देता हूँ.. हवा में उड़ते वो टुकड़े भी जैसे मेरे चेहरे पर ही थू-थू कर रहे हैं... मैं रूमाल निकाल कर अपना चेहरा पोंछ लेना चाहता हूँ, लेकिन वो तो चेहरे से होते हुए मेरे वजूद पर उतर गया है... 

पलटकर घडी को देखता हूँ, सुबह के ४ बजने वाले हैं... ये भी कोई वक़्त है जागते रहने का... मैं फिर से बीमार-बीमार सा फील कर रहा हूँ... मन के भीतर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से चलते हुए अंधड़ में तना-दर-तना उखड़ता जाता हूँ....  कमबख्त नींद भी नहीं आती, करवटें पीठ में चुभने लगती हैं... बेबसी से कांपते हुयी अपनी आवाज़ को द्रढ़ता की शॉल में लपेटकर खूब जोर से चिल्लाने का मन करता है... काश कि सपने भी सूखे पत्तों के ढेर की तरह होते... सूखे पत्ते जल भी तुरंत जाते हैं और उनमे ज्यादा धुंआ भी नहीं होता... लेकिन खुद अपने हाथों से अपने सपने जला देना उतना आसान भी तो नहीं... खिड़की से बाहर बंगलौर चमक रहा है, लेकिन अन्दर निपट अँधेरा है... आस-पास माचिस भी नहीं जो आग लगा सकूं इन कागज़ के पन्नों को....
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