जनमती पनपती मोहब्बत देखी है कभी...
उन आवारा सड़कों पर
छोटी ऊँगली पकडे चलती ये मोहब्बत...
उस समाज में जहां सपनों का कोई मोल नहीं,
ऐसे में एक दूसरे की आखों में
अपना ख्व़ाब सजाती ये मोहब्बत...
नाज़ुक सी डोर से जुड़े ये दिल,
लेकिन आस-पास के कंटीले बाड़ों से
लड़ती उनकी ये मोहब्बत...
उनके होठों पर एक कच्ची सी मुस्कान लाने के लिए
दुनिया भर से नफरत मोल लेती ये मोहब्बत...
जब लोगों ने अपने दिल में जगह न दी तो,
सड़कों किनारे बैठे
आसमां का ख्व़ाब देखती ये मोहब्बत...
थक जाएँ टहलते हुए तो,
पार्क के बेचों पर
बैठने को जगह तलाशती ये मोहब्बत...
मिलन की उम्मीद जब हताशा में बदल जाए तो
किसी तन्हा शाम में
तकिये नम करती ये मोहब्बत...
इन बंदिशों, रंजिशों से पंगे लेते हुए
दिल में मासूम एहसास
संजो कर रखती ये मोहब्बत...
जब मंजिल लगे धुंधली सी तब भी
वहाँ तक पहुँचने के
रास्ते से ही मोहब्बत करती ये मोहब्बत....
जब साथ जवान न होने दिया जाए
तो साथ बूढ़े होने को बेताब ये मोहब्बत...
साल-दर-साल की जुदाई में,
हर ख़त्म होते साल के साथ
अगले साल का इंतज़ार करती ये मोहब्बत...
न किसी महल की ख्वाईश,
न ही किसी जन्नत की
हमें मुबारक अपने आवारा सड़कों की ये मोहब्बत...