Showing posts with label तुम सिर्फ तुम. Show all posts
Showing posts with label तुम सिर्फ तुम. Show all posts

Tuesday, March 12, 2024

लापता मुसाफिर...

मैं शाम को आऊँगा तुमसे मिलने
वही, हमेशा की तरह
उसी पार्क की उसी बेंच पर.
देर से ही सही,
मैं आऊँगा ज़रूर.

मैंने किया इंतज़ार पर 
तुम लौट गयीं अपने गाँव, 
तुम्हें पता है,
तुम्हारे जाने के बाद
हर पार्क में गया
अकेले बैठा हर उस बेंच पर
जहां हम कभी बैठ जाया करते थे.

हंसा या रोया पता नहीं,
बस बैठा रहा घंटों तक.

एक बात कहनी थी,
हमारे उन सारे वादों की क़सम है तुम्हें,
तुम उदास मत होना
मुझे छोड़ देने के बाद.

मुझे मालूम है
हम मिलेंगे कभी,
कहीं ना कहीं
शायद मरने के बाद
शायद अगले जन्म से पहले,
या फिर शायद अगले जन्म में.

अगर जो ना  मिल पाएं तो,
ये मत सोचना मैं अटका हूँ कहीं,
मैं निकल गया हूँ
वहाँ से बहुत दूर
बस दिल का एक कोना पीछे छूट गया है.

Tuesday, January 02, 2024

सुकून...

लड़ाई लंबी थी, लेकिन अब वो दोनों हार चुके थे...  

शायद हताशा थी या अकेले रहने का डर, विकास ने नये रास्ते की तरफ़ रुख़ कर लिया. एक पल में जैसे सब कुछ बिखर गया था, उसे अब किसी बात पर जैसे हंसी आती ही नहीं थी, बस एक ढोंग करता गया पूरी दुनिया के सामने... एक बार फ़ोन तक नहीं किया, इतना पत्थर बन गया जैसे खुद को बचा रहा हो...  

अंशु ने नई मंज़िल चुनने से पहले कहा कि उसे बस अब सुकून चाहिए. 

विकास ने कई बार मुझसे पूछा कि ये सुकून क्या होता है. मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूँ, शायद मुझे भी सुकून नहीं मिला सालों से. याद नहीं आता आख़िरी बार कब मिला था.  

मैंने विकास से पूछा कि ये पहली बार उसे कब लगा कि ये सबसे सुकून वाला पल है. उसने कहा जब पहली बार अंशु का इंटरव्यू निकला और उसने मुझसे आकर मेरी राय ली कि क्या वो जॉइन कर ले. जबकि उस वक़्त हमें एक दूसरे को मिले ज़्यादा अरसा भी नहीं हुआ था, मुझे लगा अचानक से मैं कब किसी का इतना अपना बन गया पता ही नहीं चला.

फिर कई बार इसी तरह की फीलिंग आई, जब वो उदास होकर बस स्टॉप पे मेरे गले लग कर रोयी थी, मुझे लगता है ऐसा अपनापन मुझे इससे पहले कभी नहीं लगा और शायद अब कभी लगेगा भी नहीं. वो वक़्त कुछ और था, वो प्यार कुछ और था...  अब बस एक खाना पूर्ति ही है कि खुश होना है. 

विकास बात करते करते कई बीती बातों का रुख़ मेरी और मोड़ देता है, मेरे पास किसी बात का जवाब नहीं होता. वो कहता है कि मरने के बाद तो मौक़ा मिलता होगा ना कुछ सवालों के जवाब भगवान से मानने का. मेरे पास इसका भी कोई जवाब नहीं, जवाब भी भला क्या हो मैं तो भगवान को ही नहीं मानता.

मैं उसे उदास देखता हूँ तो मेरा दिल बैठ जाता है, एक वक़्त था जब वो अपनी कहानियाँ हर किसी को सुनाना चाहता था, अपने प्रेम को चाँद पर लिख देना चाहता था. अब वो प्रेम लिख ही नहीं पाता, अब वो सुकून की परिभाषा खोजता है और उसे वो भी नहीं मिलता. ना सुकून, ना ही सुकून की परिभाषा.

कैसे मिलता है सुकून.
सुकून तब जब आप उदास हों
और एक कंधा मिले सर टिकाने को, 

सुकून तब जब वो उदास हो
और आपके कंधे पर सर टिका दें 

सुकून जब आपकी उदासी बिना कहे समझ ली जाए
जब आँखों के कोर नम होने से पहले
सामने वाले को एहसास हो जाए

मुझे नहीं मिला ऐसा सुकून
तुम्हारे जाने के बाद

क्या तुम्हें मिला ?

Sunday, December 16, 2018

आवारों सड़कों की मोहब्बत...

उन तंग गलियों में हाथों में हाथ डाले 
जनमती पनपती मोहब्बत देखी है कभी... 

उन आवारा सड़कों पर 
छोटी ऊँगली पकडे चलती ये मोहब्बत... 

उस समाज में जहां सपनों का कोई मोल नहीं, 
ऐसे में एक दूसरे की आखों में 
अपना ख्व़ाब सजाती ये मोहब्बत... 

नाज़ुक सी डोर से जुड़े ये दिल, 
लेकिन आस-पास के कंटीले बाड़ों से 
लड़ती उनकी ये मोहब्बत... 

उनके होठों पर एक कच्ची सी मुस्कान लाने के लिए 
दुनिया भर से नफरत मोल लेती ये मोहब्बत... 

जब लोगों ने अपने दिल में जगह न दी तो, 
सड़कों किनारे बैठे 
आसमां का ख्व़ाब देखती ये मोहब्बत... 

थक जाएँ टहलते हुए तो, 
पार्क के बेचों पर 
बैठने को जगह तलाशती ये मोहब्बत... 

मिलन की उम्मीद जब हताशा में बदल जाए तो 
किसी तन्हा शाम में 
तकिये नम करती ये मोहब्बत... 

इन बंदिशों, रंजिशों से पंगे लेते हुए 
दिल में मासूम एहसास 
संजो कर रखती ये मोहब्बत... 

जब मंजिल लगे धुंधली सी तब भी 
वहाँ तक पहुँचने के 
रास्ते से ही मोहब्बत करती ये मोहब्बत....

जब साथ जवान न होने दिया जाए
तो साथ बूढ़े होने को बेताब ये मोहब्बत...

साल-दर-साल की जुदाई में,
हर ख़त्म होते साल के साथ
अगले साल का इंतज़ार करती ये मोहब्बत...

न किसी महल की ख्वाईश, 
न ही किसी जन्नत की  
हमें मुबारक अपने आवारा सड़कों की ये मोहब्बत...


Friday, September 07, 2018

तुम प्यार करोगी न मुझसे

तुम प्यार करोगी न मुझसे,

तब, जब मैं थक के उदास बैठ जाऊँगा
तब, जब दुनिया मुझपे हंस दिया करेगी
तब, जब अँधेरा होगा हर तरफ
तब, जब हर शाम धुंधलके में भटकूँगा मैं उदास

तब एक उम्मीद का दिया जगाये
तुम प्यार करोगी न मुझसे...

तब, जब मुझे दूर तक तन्हाई का रेगिस्तान दिखाई दे 
तब, जब मेरे कदम लड़खड़ाएं इस रेत की जलन से 
तब, जब मैं मृगतृष्णा के भंवर में फंसा हूँ 
तब, जब इश्क़ की प्यास से गला सूख रहा हो मेरा 

तब अपनी मुस्कान ओस की बूंदों में भिगोकर 
तुम प्यार करोगी न मुझसे...

तब, जब ये समाज स्वीकार नहीं करे इस रिश्ते को
तब, जब प्रेम एक गुनाह मान लिया जाए
तब, जब सजा मिले हमें एक दूसरे के साथ की
तब, जब मुँह फेर लेने का दिल करे इस दुनिया से

तब इस साँस से लेकर अंतिम साँस तक
तुम प्यार करोगी न मुझसे... 

Sunday, November 05, 2017

अपने सबसे प्यारे दोस्त को ताउम्र खुश रख पाने का सुख.....

कभी-कभी लगता है जैसे मैं कई सारे झूठे-सच्चे सपनों का सौदागर हूँ... अब तो इस बात से फर्क भी नहीं पड़ता कि कितने सपने पूरे हो रहे हैं और कितने अधूरे छूटते जा रहे हैं.... कभी मैंने खुद ने कभी इन हालातों ने न जाने कितने सपनों को पीछे छोड़ दिया और आगे बढ़ गए... फिर भी मैं हर रोज एक सपना देखता हूँ और पूरी शिद्दत से उसे पूरा करने में जुट जाता हूँ... कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जैसे पूरी कायनात ने किसी सपने को पूरा करने की राह में रोड़े अटकाए हों लेकिन मैं भी किसी मंझे हुए फुटबॉल खिलाड़ी की तरह ड्रिबल करते हुए अपने सपनों को गोल पोस्ट की तरफ लिए चले जाता हूँ... मुझे मेरे सपनों से अलग करना वैसे ही होगा जैसे शिकंजी से चीनी निकालना... इन सारे सपनों को मैं किसी अन्तरिक्ष यान में छोड़ देना चाहता हूँ, ताकि ये सारे सपने अनगिनत ध्रुव और परिधि बनाकर तुम्हारे आस-पास चक्कर काटते रहें... मुझे पता है, कभी जो कोई सपना अगर उल्का बन गया और खूब तेजी से तुम्हारी तरफ बढ़ेगा तो तुम दोनों हाथ पसारे उसे अपने सीने से लगा लोगी, ठीक वैसे ही जैसे जब हम कई दिनों बाद मिलते हैं तो तुम खूब जोर से मेरे सीने से चिपट जाती हो... जैसे ही वो उल्का बना सपना तुमसे लिपट जाएगा, तुम्हारे मन के आसमां में ढेर सारी रौशनी पसर जायेगी और उस रौशनी में तुम देखोगी कि मैं वहीँ खड़ा तुम्हारे लिए और ढेर सारे सपनों के समंदर बुन रहा हूँ... 

तुम्हारी ये खिलखिलाती सी मुस्कुराहटें, हज़ारों बहते हुए समन्दरों पर मेरे ख़्वाबों का आपतन बिंदु है... जब तुम हंसती हो तो मुझे इस दुनिया की सारी बंदिशों के खिलाफ जाने का दिल करता है, जैसे तुम्हारे चेहरे पर आने वाली हर मुस्कान के लिए ऐसे हर जहाँ हर बार कुर्बान... बहुत साल पहले मुझसे किसी ने कहा था कि मैं डूब कर मोहब्बत करता हूँ, पर मुझे लगता है जो डूब ही न पाए वो मोहब्बत ही कहाँ है भला... 

तुम जब भी मुझसे पूछती हो न कि "मैं क्या कर रहा हूँ..." और मैं जवाब दे देता हूँ, "कुछ नहीं... "
मेरा ये "कुछ नहीं..." समझ लो एक खाली गुल्लक है, जिसमे तुम अपने ख़्वाबों के सिक्के डालती जा सकती हो ता उम्र... इस गुल्लक से आती हुयी खनखनाती सी आवाज़ के भरोसे ही तो मेरी सांस चलती है इन दिनों..  ये "कुछ नहीं..." ही सब कुछ है मेरे लिए क्यूंकि इस "कुछ नहीं... " से ही मैं अपना "सब कुछ" तुम्हारी इन छोटी-छोटी हथेलियों में डाल के सुकून से चल सकता हूँ उन अनगिनत जन्मों के सफ़र पर तुम्हारे साथ.... 

इस दुनिया में कई सारे सुख हैं लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा सुख है अपने सबसे प्यारे दोस्त को ताउम्र खुश रख पाने का सुख.... 

Wednesday, May 17, 2017

इक तेरा इश्क़, इक मेरी ग़ज़ल...

मिलती है तू ख़्वाबों में, हर बार बिछड़ के ऐसे
धूप के कम्बल से झांकती जैसे वो ठिठुरती सी शाम है |

ए हमदम तेरा दिल मुझे उस नुक्कड़ सा लगता है
जिसे कोई मंजिल न मिली और वही आखिरी मुक़ाम है |

मैंने लिक्खी थीं कई नज्में अपनी मोहब्बत के वास्ते,
पर उन नज़्मों पर तेरी मुस्कराहट ही मेरा सच्चा कलाम है |

परवाह नहीं मुझे ज़माने की संगदिली की जब तक
मेरे दिल की ज़मीं पर तेरी मोहब्बत का आसमान है |

लिखने बैठा हूँ इक ग़ज़ल मोहब्बत के काफ़िये में
हर पन्ने पर लिक्खा मैंने बस तेरा ही नाम है |

कितना कुछ है जो लिखा जा चुका है कई-कई बार,
इक तिरा नाम है जिसे हर बार लिखना जज़ा का काम है |


*जज़ा- पुण्य 

Wednesday, August 03, 2016

कुछ लिखते रहना ज़रूरी है न, बस तुम्हारे लिए....

मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं कहीं इधर-उधर के कई नुक्कड़ों पर थोड़ा थोड़ा सा छूट सा गया हूँ... मेरे द्वारा लिखा हुआ सब कुछ, मेरे उस वक़्त का पर्यायवाची है... मुझे पर्यायवाची शब्द शुरू से ही पसंद नहीं आते, जाने कितने ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ एक जैसे होते हैं लेकिन हर शब्द हर जगह उपयोग नहीं किया जा सकता... हिन्दी व्याकरण में मुझे अनेक शब्दों के एक शब्द बहुत पसंद था, तुम्हारा मेरी ज़िंदगी में होना भी अनेक शब्दों का एक शब्द है...   

तुमने जितने छल्लों में बांटकर मुझे ये वक़्त दिया है न, कलेंडर की कई तारीखों के कोनों में फंसा हुआ वो वक़्त टूथपिक से निकालना पड़ता है.. हो सके तो हर शनिवार इन छल्लों को मिलाकर एक पुल बना दिया करो न इस जहां से उस जहां तक... 

मैं तुम्हारी आखों को 
शब्दों में लिखता हूँ,

मेरी नज़मों में तुम
इश्क़ पढ़ती हो...

सच, तुम्हारी आखें ही इश्क़ हैं,

जिनमें खुद के गुमशुदा हो जाने की
रपट लिखवा दी थी मैंने पाँच साल पहले ही..

Saturday, June 18, 2016

जैसा कि तुमने कहा...


इस छोटे से घर की खिड़की से
झांकता हुआ ये चाँद,
और इसे निहारते हुए
हम और तुम,
अपने साथ लिए
कुछ फुरसत के पल,
चलो बांध ले इन पलों को, 
जैसे बांध के रखा है 
तुमने अपने सपनों को
मेरी खुशियों के साथ...


Wednesday, June 08, 2016

मैं तुमसे भाग के भी तुम तक ही आऊँगा...

दिन भर की इधर उधर बेमानी सी बातों के इतर जल्द से जल्द घर पहुँचने की जाने क्यूँ अजीब सी हड़बड़ी होती है... शायद एक कोने में लौटने भर का सुकून ही है जो मुझे आवारा बना देता है... 

कभी कभी मुझे डर लगता है कि अगर मैं किसी दिन शाम को घर नहीं लौट सका तो डायरी में समेटे हर्फ बिखर तो नहीं जाएँगे... हर सुबह मैं कितना कुछ अधूरा छोडकर उस कमरे से निकलता हूँ, उस अधूरेपन के लिबास पर कोई पासवर्ड भी नहीं लगा सकता... बैंग्लोर में बारिश भी तो हर शाम होती है, और मैं हर सुबह खिड़की खुली ही भूल जाता हूँ... अगर कभी ज़ोरों से हवा चली तो वो खाली पड़े फड़फड़ाते पन्ने मेरे वहाँ नहीं होने से निराश तो नहीं हो जाएँगे... हर सुबह उस खिड़की से हल्की हल्की सी धूप भी तो आती है, उस धूप को मेरे बिस्तर पर किसी खालीपन का एहसास तो नहीं होगा... मेरे होने और न होने के बीच के पतले से फासले के बीच मेरी कलम फंसी तो नहीं रह जाएगी न, उस कलम की स्याहियों पर न जाने कितने शब्द इकट्ठे पड़े हैं, उन्हें अलग अलग कैसे पढ़ पाएगा कोई... 

मैं कमरा भी ज्यादा साफ नहीं करता, मेरे कदमों के निशान ऐसे ही रह जाएँगे... उन निशानों को मेरी आहट का इंतज़ार तो नहीं होगा न... मेरी अनंत यात्रा के मुकद्दर में नींद तो होगी न, अक्सर जब मुझे नींद नहीं आती तो कुछ सादे से पन्नों पर अपनी ज़िंदगी लिखने का शौक भी पाल रखा है मैंने.... इत्तेफाक़ तो देखो मुझे सिर्फ अपने बिस्तर पर नींद आती है, और मैं अपने साथ अपनी डायरी भी लेकर नहीं निकलता....  

ऐसे में मैं अपनी हथेलियों पर तुम्हारे लिए चिट्ठियाँ उगा कर भेजा करूंगा.... तुम्हें तो पता है ही कि मेरी हथेलियों पर पसीने बहुत आते हैं, उसे मेरे आँसू न समझ बैठना... 

क्या मुझे साथ में एक्सट्रा जूते रख लेने चाहिए, कहीं किसी तपते रेगिस्तान में फंस गया तो उस आग उगलती रेत में कैसे पूरा करूंगा घर तक वापस आने का सफर... उफ़्फ़ मेरी कलाई घड़ी में इतने दिनों से बैटरि भी नहीं है, वक़्त का पता कैसे लगाऊँगा... इस घड़ी की सूईयों की तरह ये वक़्त भी कहीं भी ठहर जाता है, मेरा वक़्त सालों से मेरे बिस्तर के आस-पास अटक कर रह गया है... तुमको जो घड़ी दी थी न उसमे वक़्त देखते रहना क्या पता उस घड़ी के समय के हिसाब से मेरे कदम तुम्हारी तरफ चले आयें... 

दिल करता है पूरा शहर अपने साथ लिए चलूँ जहां भी जाता हूँ, लेकिन कितना अच्छा होगा न अगर तुम ही बन जाओ मेरा पूरा शहर, मेरी घड़ी, मेरा वक़्त, मेरी डायरी, मेरी कलम, मेरी धूप, मेरी शाम, मेरी बारिश, मेरी पूरी ज़िंदगी...  

Tuesday, March 29, 2016

एकांत...

खिड़की के चार सींखचों और
दरवाज़े के दो पल्ले के पीछे
इस बेतरतीब बिस्तर
और इन तकियों के रुई के फाहे में,
बिना रुके इस घुमते पंखे
और इस सफ़ेद CFL की रौशनी में,
हर उस शय में
जो मुझे इस कमरे के
चारो तरफ से झांकती है...
इस घुटन में
पालथी मार के बैठा है
चपटा हुआ चौकोर एकांत...
 
मैं इस एकांत को,
तह-तह समेटता हूँ
इसके मुड़े-तुड़े कोनों पर
इस्तरी लगाके इसकी सिलवटों को
समतल करता हूँ,
लेकिन हर बार ये एकांत
वापस छितर जाता है
हर कोने में,
क्या इस एकांत को
बंद किया जा सकता है
किसी बोतल में
और फेक दिया जाए
किसी सागर की अथाह गहराईओं में,
तुम्हारी आँखें भी मुझे
किसी समंदर सा एहसास दिलाती हैं,
क्या पी जाओगी मेरा ये सारा एकांत...

Thursday, February 11, 2016

दर्पण के नियम...

मैं खुद को आवाज़ लगता हूँ हर बार,
और मेरी आवाज़ मुझसे ही टकराकर
वापस लौट आती है,
काश कि आवाज़ आ पाती
दर्पण के परावर्तन के नियम के खिलाफ,
मेरा दिल इस दर्पण का आपतन बिन्दु है...

याद रखना अगर मैं घूमा लूँ
अपना दिल किसी थीटा कोण से,
मेरी आवाज़ की परावर्तित किरण
इकट्ठा कर लेगी दोगुना घूर्णन,
ये हर दर्पण का प्रकृतिक गुण है....

मेरा ये दिल दर्पण ही तो है तुम्हारा,
है न...

Tuesday, January 12, 2016

हम प्रेम में ही हैं...

कितनी बार हम पूछते हैं
एक-दूसरे से एक ही सवाल
कि हम क्यूँ बने हैं एक दूसरे के लिए,
हम क्यूँ खड़े हैं साथ
और क्यूँ हर लम्हे को
छान रहे हैं चाँद की छलनी से,
वक़्त के हर गणित के साथ
हम समझना चाहते हैं
हमारे बीच का विज्ञान,
कितनी ही बार
तैरती है खामोशियाँ हमारे मध्य
जैसे खीच दी हो किसी ने
कोई समानांतर रेखा
जिसका कोई छोर न दिखता हो,
जैसे लगता है हम खड़े हैं अलग-अलग
और नहीं मिल सकेंगे कभी,
तभी अचानक से हम पहुँच जाते हैं
अनंत की धुरी पर
और घूमते हुये छू लेते हैं
एक दूसरे की उपस्थिति को,
ये पहेली जैसे सूडोकू की तरह है
कहीं से भी शुरू करें
हम वहीं पहुँचते हैं
उसी आखिरी खाने पर
जिसका अंक हमें
मिल कर सुलझाना पड़ता है,
अपनी ज़िंदगी का आखिरी खांचा
भर लेने के बाद
त्वरित हो जाती हैं साँसे
और मान लेते हैं हम कि
हम प्रेम में हैं,
हाँ-हाँ हम प्रेम में ही हैं...

Friday, November 20, 2015

यूं ही सफर में सोचते-सोचते...

लोग कहते हैं इश्क़ और मेरे लबों पर तुम्हारा नाम अपने आप आ जाता है....

**************

बंगलौर में
दूधिया कोहरा नहीं पसरता है कभी,
लेकिन तुम्हारे दूर होने से
मेरे दिल पे जो
उदासी का कोहरा है
उसमे मुश्किल हो जाता है
ढूँढना खुद का ही वजूद....

**************


जब तुम्हारे हिस्से का
आसमान उदास होगा
तो मेरे कमरे के बादल
और घने हो जाएँगे,
उस अंधेरे में
मेरे दिल की
थमी सी धड़कन
पहचान लोगी न....


**************

चलो न कहीं वादियों में एक छोटा सा प्लॉट लेकर डालते हैं प्यार के बीज और उगाते हैं इश्क़,
दुनिया में प्यार कम हो चला है इन दिनों...

**************

समंदर की गहराई की कसम खाने वाले लोग अकसर तुम्हारी आँखें देखकर अपनी जान गंवा बैठते हैं....
**************

ज़िंदगी के हर मोड पर किनारा तलाशते तलाशते कुछ साल पहले मुझे तुम्हारी आँखों की पलकों का सहारा मिल गया था, ऐसा लगता है जैसे किसी पिछले जन्म की बात है.... 

Sunday, August 30, 2015

मैं इश्क़ लिखूंगा तो पढ़ोगी न...

इस शहर में बरसों से कोई नहीं आया...
बस एक सुराख़ रख छोड़ा था आसमान में
जहाँ से धूप आती है सवेरे-सवेरे,
और कभी कभी बरसात भी वहां ठहर कर जाती है...
 
याद है तुम्हें, उस आसमान में जो एक सुराख छोड़ा था कुछ साल पहले, उसके नीचे अब बहुत बड़ा जंगल उग आया है.... अलग-अलग तरह के दरख़्त है उसमे, कुछ फूलों की कोमल पंखुड़ियाँ भी अठखेलियाँ करती हैं... सबके अलग-अलग रंग, अजीब अजीब सी खुशबू ... इसको अलग अलग छांट नहीं सकते, किसी की कोई अलग पहचान नहीं सब गडमड सा, सुहाना... 

ये जंगल एकदम सपनों सरीखा है न, सपना ही तो है...  क्यूंकि हकीकत में आस-पास देखो तो अजीब ही माहौल है...
मुझे नहीं लगता ये सही वक़्त है प्रेम कवितायें लिखने का जब आस-पास नफरत है, आग है, बरबादी है... लेकिन एक आखिरी सत्य तो प्रेम ही है न, बाकी सब तो तीखा है जहर से भी तेज़.... प्रेम में अगर दर्द भी है तो खट्टा सा है, एक चुटकी सपनों का नमक डाल दो सब जन्नत है....

तेरा रंग उलझ गया है,
मेरी नींद में कहीं
जो आधी रात कभी खुल जाये नींद तो
आस-पास दिखता है
तेरे प्यार का इंद्रधनुष....

तो इस शहर में कितना भी धुंधलका हो मैं प्रेम ही लिखूंगा हमेशा.... 

वक़्त के दरख़्त से बने इस कागज पर
गर मैं इश्क़ लिखूंगा तो पढ़ोगी न..

Tuesday, April 14, 2015

एकम एक, एक दूनी दो, एक तिया तीन...

आज की तारीख देख रही हो न.... तुम मानो या न मानो ये तारीख़ तो महज एक छलावा भर है... किसने कहा कि तुम्हें इसी दिन मुझसे प्यार हुआ था... क्या पता एक हफ्ते पहले हुआ हो, या एक महीने पहले या फिर सात जन्म पहले ही... हाँ बस ये तारीख ही है जो हमें याद है सलीके से, बाकी के जज़्बातों को तो तारीखों का जामा पहनाना मुश्किल ही है...
अजीब बात है न, हम ये तारीख ही तय नहीं कर पाते कि हमें प्यार हुआ कब था... अब प्यार कोई बाइनरि फ्लैग थोड़े न है, जो एक और सिफ़र के बीच ही सिमट जाये....
प्यार के इस analog सिग्नल को कितना भी ग्राफ में उतार लो पता कभी नहीं चलेगा कि आखिर किस Dimension पर दिल हाथ से निकल गया...

सुबह दफ्तर जाने की हड़बड़ी है और नींद ने भी आंखो में दस्तक दे दी है... बस एक इश्क़ का बटन ही है जो बंद होने का नाम नहीं ले रहा, उसपर ये बंगलौर का कातिल आशिक़ाना मौसम....

मैंने तुम्हारे लिए बहुत कुछ लिखा है, आगे भी लिखूंगा लेकिन क्यूँ न आज अपनी खामोशीयों को कुछ कहने दें.... आखिर उन लंबे सुहाने रास्तों पर टहलते हुये कई बार हमारी खामोशियों ने
भी बहुत कुछ कहा है एक दूसरे से....

Sunday, March 29, 2015

मेरी बातें अनछुइ सी रह जाती हैं इन दिनों....

आकाश में कुछ रंग बिरंगे फूल रोप दूँ तो,
तुम्हारी हर उदासी के ऊपर
फूलों की खुशबू गिरेगी ....
उस खुशबू से
तुम खुश तो हो जाओगी न....

****************

आसमां की झूलती खिड़कियों पे आईना है,
ठीक वैसे ही जैसे मेरी खिड़की पे लगा है...
तुम्हारी शक्ल आधी दिखे तो
तुम आईना नीचे कर लगा लिया करती हो,
कह दो तो आसमां भी झुका दूँ
कि देख सको
खिड़की के उस पार
तुम्हारी शक्ल के साथ इश्क भी है मेरा....

****************

धीमी सी आंच है इस दिल की सिगड़ी में,
इसमे जितनी तेरी याद जलेगी,
इश्क उतना ही कुंदन होगा....

****************

तुम्हारा चेहरा न गोल है न चौकोर
आकार बदलते हैं कुछ चेहरे
इस चाँद की तरह
होता भी है और कभी-कभी नहीं भी,
लेकिन जब नहीं भी होता
तब भी मुस्कुराता रहता है
छुप-छुप कर....

Tuesday, February 17, 2015

तुम ज़िंदगी हो मेरी...

तुम प्रेरणा हो मेरी,
तुम धारणा हो मेरी
अकेलेपन के जंगलों में
अचानक से मिले
इक कल्पतरु से छन कर
आती हुयी छांव हो मेरी...

गयी शाम
एक हल्का सा बादल
समेट रखा था,

एक शिद्दत से
जो बारिश की कुछ बूंदें
निचोड़ी उस बादल से,
लम्हा-लम्हा जोड़ कर जो की
तुम वो साधना हो मेरी...

तल्ख़ हुए हैं कई बार
शायद कुछ शब्द मेरे,
उसी तरह जैसे
कभी-कभी मैं झुँझला जाता हूँ
अपने आप से भी, 
खुद से लड़ते हुए
चलता हूँ जिसके साथ हमेशा
तुम वही ज़िंदगी हो मेरी...

तुम प्रेरणा हो मेरी...
तुम साधना हो मेरी.... 

डिस्क्लेमर :- एक-दो पंक्ति सुनी थी उससे ही पूरा कुछ लिख डाला...

Sunday, January 18, 2015

छोटा सा लम्हा...

कभी-न-कभी
हम कलैंडर के
उस पन्ने पर पहुंचेंगे
जब तकिये पर अटकी
उन आखिरी झपकियों के सहारे,
हम देख रहे होंगे
अपनी ज़िंदगी के कुछ आखिरी सपने,
हमारे सपने यहीं रहेंगे,
इसी धरती पर
चाहे हम रहें न रहें.... 

Thursday, December 25, 2014

तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है....

कभी अचानक से सुबह जल्दी नींद खुल जाये तो मैं चौंक कर इधर-उधर देखने लग जाता हूँ.... तुम्हारे होने की हल्की सी खुशबू फैली होती है चारो तरफ..... जैसे चुपके से आकर मेरे ख्वाबों को चूमकर चली गयी हो.... आधी -चौथाई या फिर रत्ती भर भी, अब तो जो भी ज़िंदगी महफूज बची है बस यूं ही गुज़रेगी तुम्हारे होने के बीच....


वक़्त के दरख़्त पे
मायूसियों की टहनी के बीच 
कुछ पतझड़ तन्हाईयों के भी थे,
पर इस गुमशुदा दिसंबर में
उम्मीद की लकीरों और 
ओस की नमी के पीछे
दिखती तुम्हारी भींगी मुस्कान…

दिसंबर की सर्दियों के ख्वाब भी
गुनगुने से होते हैं,
रजाईयों में दुबके हुए से,
उसमे से कुछ ख़्वाब फिसलकर
धरती की सबसे ऊंची चोटी पर 
पहुँच गए हैं,
उस चोटी से और ऊपर, बसता है
ढाई आखर का इश्क अपना..

Monday, October 13, 2014

इस तन्हा शाम का विलोम तुम हो...

इन पेचीदा दिनों के बीच,
आजकल बिना खबर किए ही
अचानक से सूरज ढल जाता है,
नारंगी आसमां भी बेरंग पड़ा है इन दिनों...

इन पतली पगडंडी सी शामों में
जब भी छू जाती है तुम्हारी याद
मैं दूर छिटक कर खड़ा हो जाता हूँ...
क्या करूँ
तुम्हारे यहाँ न होने का एहसास
ऐसा ही है जैसे,
खुल गयी हो नींद
केवल बारह मिनट की झपकी के बाद,
इस बारह मिनट में मैं
तीन रेगिस्तान पार कर आता हूँ,
रेगिस्तान भी कमबख्त
पानी के रंग का दिखता है...

तुम्हारी याद भी एक जादू है,
उन नीले रेगिस्तानों में
मटमैले रंग के बादल चलते हैं....

इससे पहले कि इसे  पढ़ कर
तुम मुझे बावरा मान लो,
चलो इस शाम का
विलोम निकाल कर देख लेते हैं,

इस बारह मिनट की झपकी के बदले
तुम्हारी गोद में मिले सुकून की नींद
जहां बह रहे हैं
ये तीन नीले रेगिस्तान
वहाँ झील हो तुम्हारे आँखों की
और इन मटमैले बादलों के बदले
तुम्हारी उन काली ज़ुल्फों का घेरा हो...

इस तन्हा शाम का विलोम बस तुम हो...
आ जाओ कि,
ज़िंदगी फिर उसी लम्हे से शुरू करनी है
जहां तुम इसे छोड़ कर चली गयी हो...

अब ये मत कहना कि
ये नज़्म मुकम्मल नहीं,
आखिर तुम्हारे बिना कुछ भी
पूरा कहाँ हो पाया है आज तक....
Do you love it? chat with me on WhatsApp
Hello, How can I help you? ...
Click me to start the chat...