हम अभी अभी ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहाँ अवसाद जैसा कुछ नहीं होता… दुःख होता है जो वक्त के साथ ख़त्म हो जाता है… हम ये बात मानने से इनकार करते हैं कि कुछ लोग हैं, जो इतने सेन्सिटिव होते हैं कि वक्त का मरहम भी उनके घाव नहीं भर पाता… कई बार तो उन्हें खुद एहसास नहीं होता कि वो अवसाद में है…
एक मनोचिकित्सक जब तह तक जाकर सवाल पूछता है तब एहसास होता है अंदर सब टूटा टूटा सा है…
सकारात्मक होना ज़रूरी है, लोगों को सकारात्मक होने को कहना भी ज़रूरी है लेकिन कभी कभी ये रास्ता एकतरफ़ा हो जाता है… ऐसे में अगर मरहम लगाने वाला कोई ना हो तो आसान से आसान रास्ते मुश्किल लगते हैं…
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कलम पकड़ता हूँ तो उससे ख़ाली डब्बे की आवाज़ आती है, मेरी सोच जिसने अनंत सम्भावनाएँ लिखी हैं और हज़ारों पढ़ने वालों के मन को उकेरा है अब उस सोच की परतें जैसे जम गयी हैं...
लिखने को इंसान कुछ भी लिख सकता है, पर मुझे पढ़ने वाले जानते हैं कि मेरा फ़ेवरेट genre फ़लसफ़ा रहा है, जिसे लिखते और पढ़ते वक्त ज़िंदगी के कई सफ़हे खुलते हैं.
2019 में की गई इतने देशों की यात्रा और फिर उसके बाद अचानक से घर में क़ैद हो जाने के दरम्यान बहुत कुछ है जो मैं नहीं लिख पाया... उन कहानियों और संस्मरणों में सौंदर्य था, ज्ञान था, बोझिलता भी थी, कुछ नज़्मों के सिरे अलग हुए, कुछ ग़ज़लें रूठ गई, कुछ नए दौर आए... इन सारी हो रही घटनाओं के बीच एक लेखक ने लिखना छोड़ दिया...
इस कोरोना काल में जब दुनिया रुकी है, हर दूसरे दिन किसी न किसी का जाने का समाचार सुन रहा हूँ तो, ज़िंदगी से दोस्ती गहरी करनी ज़रूरी है...
इसलिए खुद का ही लिखा पढ़ना ज़रूरी हो जाता है कभी-कभी...
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कभी कभी
खुद के चारो तरफ
स्वतः ही
हो जाता है एक शून्य-निर्माण ...
शरीर दिखता भर है और
बस महसूस होती है उसकी गंध
गंध उन बासी साँसों की
जैसे बरसों से पड़े सीले कपड़ों को
दिखा दी हो किसी ने धूप सूरज के पीठ की ...