Monday, March 18, 2024

कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा...

बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा,
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से,
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ…

कैसे नापूँ आसमान मैं,
कैसे स्वप्न सजीले देखूँ
तूने ही जब राह फेर ली
कैसे अब उन रस्तों की चाल लूँ...

कैसे भूले राधा को कृष्णा,
कैसे विरह का गीत सुनाये
जो प्रेम अपूर्ण है मन के अंदर ,
कैसे उसको पूर्ण बताये...

बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ… 

कैसे उड़ूँ मैं रोशनियों में
जब जुगनू सारे थक के गिर गए,
कैसे देखूँ उन चेहरों को
मेरे लिये वो कबके मर गये...

कैसे फिरसे बरसे बादल
कैसे भींगूं फिर बारिश में मैं,
कैसे ये शहर हो फिर स्वर्ग सरीखा
कैसे हवा हो ठंडी-ठंडी ...

बता सखी अब
कैसे पाऊँ प्रेम दोबारा
तृष्णा मिटे अब कैसे फिर से
कैसे अब मैं पुनः तृप्त हूँ…

Wednesday, March 13, 2024

अधूरी दास्तानें (2)...

“प्यार तो सबसे बेसिक ज़रूरत है ना जीने के लिए."
“है तो….”
“फिर ? “
“फिर क्या ?”
“कुछ नहीं.”
“प्यार है ना, बहुत है… प्यार अब तक है तभी तो ज़िंदा हूँ…”
“………..”

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मुझे लगता है दो बिछड़ जाने वालों के बीच एक कोड वर्ड होना चाहिए, जो सिर्फ़ वो दोनों समझ सकें. जब भी ये कोड वर्ड बोला जाए तो दूसरे को ये एहसास हो जाये कि सामने वाला कमज़ोर पड़ रहा है....

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वक़्त के साथ कैसे मायने बदलने लगते हैं. पहले जो अपना घर था जाने कब बिटिया का दादी-घर बन गया. चाहे कुछ भी कह के पुकारा जाए, ये तो अपना ही घर रहेगा हमेशा. क्योंकि न ये सुकून कहीं है और न ही बड़ों का हाथ सर पे होने का विश्वास, फिर चाहे भले ही अब वो शारीरिक तौर पर हमारा सहारा न बन सकें. सुबह जब खिड़की से पहली रौशनी कमरे में आती है तो अलग सा एहसास है, पता नहीं क्यों ऐसा एहसास बैंगलोर में नहीं आता. पिछले बाईस सालों में जाने कितने ठिकाने बदले और हर बार हर शहर पुराना हो गया. पता नहीं भगवान ने मुझे ये वरदान


दिया है या अभिशाप कि एक बार मैं अगर कहीं से आगे बढ़ जाता हूँ तो वापस कभी उस चीज को मिस नहीं करता. फिर चाहे वो कोई जगह हो या इंसान. हाँ जब तक वो साथ हो, पूरी शिद्दत से साथ होता है, इसलिए इससे पहले कि ये शहर भी सिर्फ़ अनछुई याद बन के रह जाये, यहाँ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिता लेने चाहता हूँ. आख़िर ये शहर भी वैसा ही बन जाएगा कुछ सालों बाद....

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मैंने नहीं लिखा प्रेम कई सालों से,
दुनिया में बचा है ना प्रेम,
या विलुप्त हो रहा धीरे-धीरे
ओज़ोन की परत की तरह ..

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कितने भी साल बीत जायें,
कानों में एक आवाज़ है
जो भुलाए नहीं भूलती.
मन करता है पूछूँ,
कैसी हो तुम
ठीक हो न,

फिर लगता है
कहीं तुमने भी
यही सवाल पूछ लिया तो,
तो क्या कहूँगा.
झूठ बोल नहीं पाऊँगा और,
सच बोला नहीं जाएगा. 

इसलिए बिना पूछे,
बता दो ना,
कैसी हो
क्या बिलकुल वैसी
जैसी मिलती थी मुझे हर सुबह

मुस्कुराते हुए…

अधूरी दास्तानें ...

हम अभी अभी ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहाँ अवसाद जैसा कुछ नहीं होता… दुःख होता है जो वक्त के साथ ख़त्म हो जाता है… हम ये बात मानने से इनकार करते हैं कि कुछ लोग हैं, जो इतने सेन्सिटिव होते हैं कि वक्त का मरहम भी उनके घाव नहीं भर पाता… कई बार तो उन्हें खुद एहसास नहीं होता कि वो अवसाद में है… 

एक मनोचिकित्सक जब तह तक जाकर सवाल पूछता है तब एहसास होता है अंदर सब टूटा टूटा सा है… 

सकारात्मक होना ज़रूरी है, लोगों को सकारात्मक होने को कहना भी ज़रूरी है लेकिन कभी कभी ये रास्ता एकतरफ़ा हो जाता है… ऐसे में अगर मरहम लगाने वाला कोई ना हो तो आसान से आसान रास्ते मुश्किल लगते हैं…

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कलम पकड़ता हूँ तो उससे ख़ाली डब्बे की आवाज़ आती है, मेरी सोच जिसने अनंत सम्भावनाएँ लिखी हैं और हज़ारों पढ़ने वालों के मन को उकेरा है अब उस सोच की परतें जैसे जम गयी हैं...


लिखने को इंसान कुछ भी लिख सकता है, पर मुझे पढ़ने वाले जानते हैं कि मेरा फ़ेवरेट genre फ़लसफ़ा रहा है, जिसे लिखते और पढ़ते वक्त ज़िंदगी के कई सफ़हे खुलते हैं. 

2019 में की गई इतने देशों की यात्रा और फिर उसके बाद अचानक से घर में क़ैद हो जाने के दरम्यान बहुत कुछ है जो मैं नहीं लिख पाया... उन कहानियों और संस्मरणों में सौंदर्य था, ज्ञान था, बोझिलता भी थी, कुछ नज़्मों के सिरे अलग हुए, कुछ ग़ज़लें रूठ गई, कुछ नए दौर आए... इन सारी हो रही घटनाओं के बीच एक लेखक ने लिखना छोड़ दिया... 

इस कोरोना काल में जब दुनिया रुकी है, हर दूसरे दिन किसी न किसी का जाने का समाचार सुन रहा हूँ तो, ज़िंदगी से दोस्ती गहरी करनी ज़रूरी है... 

इसलिए खुद का ही लिखा पढ़ना ज़रूरी हो जाता है कभी-कभी... 

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कभी कभी
खुद के चारो तरफ
स्वतः ही
हो जाता है एक शून्य-निर्माण ...
शरीर दिखता भर है और
बस महसूस होती है उसकी गंध
गंध उन बासी साँसों की
जैसे बरसों से पड़े सीले कपड़ों को
दिखा दी हो किसी ने धूप सूरज के पीठ की ...

Tuesday, March 12, 2024

लापता मुसाफिर...

मैं शाम को आऊँगा तुमसे मिलने
वही, हमेशा की तरह
उसी पार्क की उसी बेंच पर.
देर से ही सही,
मैं आऊँगा ज़रूर.

मैंने किया इंतज़ार पर 
तुम लौट गयीं अपने गाँव, 
तुम्हें पता है,
तुम्हारे जाने के बाद
हर पार्क में गया
अकेले बैठा हर उस बेंच पर
जहां हम कभी बैठ जाया करते थे.

हंसा या रोया पता नहीं,
बस बैठा रहा घंटों तक.

एक बात कहनी थी,
हमारे उन सारे वादों की क़सम है तुम्हें,
तुम उदास मत होना
मुझे छोड़ देने के बाद.

मुझे मालूम है
हम मिलेंगे कभी,
कहीं ना कहीं
शायद मरने के बाद
शायद अगले जन्म से पहले,
या फिर शायद अगले जन्म में.

अगर जो ना  मिल पाएं तो,
ये मत सोचना मैं अटका हूँ कहीं,
मैं निकल गया हूँ
वहाँ से बहुत दूर
बस दिल का एक कोना पीछे छूट गया है.

Thursday, January 25, 2024

मैं इश्क़ लिखता हूँ, तो तेरी याद आती है...

मैं इन दिनों
सादे खत लिखता हूँ,
शब्द जैसे इस रूखी धूप में
सूख से जाते हैं...


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देखा है तुमने कभी
मार्च की हवाओं का गुलदस्ता,
भरी है कभी पिचकारी में
मेरी साँसों की नमी...
कहो तो इस नमी में भिगो के लिए आऊं
तुम्हारे लिए कई सारे छोटे-छोटे चाँद....

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मैं दोषी हूँ उन शब्दों का,
जिन्हें मैंने पेन्सिल से लिखा
और मिटा दिया
नटराज के इरेजर से...

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जब कभी कोई कहता है मुझे
"तुम इश्क़ बहुत अच्छा लिखते हो..."
मैं याद करता हूँ तुम्हारी मुस्कान
और दोहरा देता हूँ मन-ही-मन
"तुम बहुत प्यारी लगती हो मुस्कुराते हुए..."
क्या करूँ,
मैं इश्क़ लिखता हूँ तो तेरी याद आती है...

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मेरी लिखी हर नज़्म
एक कचिया है,
हर शाम की तन्हाई के खेत में
उपज आई लहलहाती फसल को जो काट देती है
हर सुबह...

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मैं ऊब जाना चाहता हूँ
इस दुनिया से हमेशा के लिए
पर ऊब नहीं पाता...
मैं डूब जाना चाहता हूँ
कहीं किसी समंदर में
पर डूब नहीं पाता...
ऐसी चाहतें
ट्यूबवेल के नीचे लगे पत्थर
पर जमी कजली है...

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मेरे सपने, मेरी ज़िन्दगी के शीशे पर तुम्हारी परछाईं का आपतन बिंदु है....

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मेरे बालों में कहीं-कहीं आई ये सफेदी एक नज़्म है जो मैंने तुम्हारे इंतज़ार में लिखी है....


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