हर एक की ज़िन्दगी में पचीसियों अतीत के पन्ने होते हैं, लेकिन जैसी सुगमता बचपन के पन्ने वाली लिखावट में होती है, वैसी तो कहीं नहीं... वो नादान सी साफगोई, अपने उस कोमल, सौम्य वजूद को बचा के रहने की जद्दोजहद... एक ज़रा सी आह पर अपने आस-पास अपने चाहनेवालों की भीड़ देखना भला किसे पसंद नहीं होता...
कई शामें मीठी सी होती थीं, जब बार-बार मिठाई की जिद करने पर, माँ हथेली पर गुड़ का एक ढेला डाल दिया करती थी... मन बल्लियों उछल जाता था... हर रोज़ स्कूल से लौटते समय जब मैं माँ से रिक्शा पर चलने की जिद करता था तो माँ मुझे हाथ में दो बिस्कुट पकड़ाती थी और कहती थीं चलो न खाते-खाते घर आ जाएगा... कटिहार ब्लॉक के पास वाली गुमटी से खरीदे गए अठन्नी के दो मिलने वाले बिस्कुट महज अपने नन्हें छोटे हाथों में पकड़ लेने से जो सुख मिलता था, वैसे सुख की तलाश में आज कई-कई शामें बेज़ार होकर पिघलती जाती हैं...
इन सब के बीच कब हमारी त्वचा धीरे-धीरे खुरदरी हो जाती है और न जाने कब जॉनसन एंड जॉनसन से आगे बढ़के हम NIVEA और DOVE पर आ जाते हैं... ख्वाबों और खिलौनों की दुनिया से आगे आकर BHK खोजने में लग जाते हैं... जाने क्यूँ चवन्नी के लेमन्चूस से संतुष्ट हमारा मन 6 डिजिट की सैलरी मिलने के बाद भी रात को चैन से नहीं सो पाता... करवटें बदल-बदल के आयी हुई इन अधपकी नींद की झपकियों में आने वाले दिन की लहक होती है... ऐसा नहीं है कि हम दुखी हैं, हम दिल खोल कर अपनी ज़िन्दगी एन्जॉय करते हैं, लेकिन कभी किसी उदास शाम में अपने कमरे की बालकनी में बैठे हुए सोचते हैं तो दूर से बचपन की वो चमकीली हंसी, आवाज़ लगाती हुई सी लगती है...
मैंने आज सांझ से पूछा कि बचपन की वो कौन सी चीज है जो वो आज सबसे ज्यादा मिस करती है, तो उसने कहा चॉकलेट का स्वाद... पहले बड़ी मेहनत और जिद से मिलने वाली चॉकलेट आज वो जब जी चाहे खुद खरीद के खा सकती है लेकिन अब उसमे वो स्वाद ही नहीं रहा...
सही बात भी है, जो कभी-कभी बड़ी मासूमियत से मिलता है स्वाद बस उसी का रह जाता है जुबान पर, जो आसानी से मिल जाए उसका स्वाद जीभ को मामूली सा ही लगता है...
सही बात भी है, जो कभी-कभी बड़ी मासूमियत से मिलता है स्वाद बस उसी का रह जाता है जुबान पर, जो आसानी से मिल जाए उसका स्वाद जीभ को मामूली सा ही लगता है...