कई दिनों से कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा. ऐसा लगता है जैसे सब कुछ ख़त्म हो
गया हो अन्दर... कुछ भी नया नहीं...कहीं न कहीं कोई दबी सी बात तो है
जिसकी खबर मुझे भी नहीं, कुछ ऐसा जो लगातार मुझे परेशान करता रहता है...
काश इस एकांत की भी कोई एक्सपाईरी डेट होती, या फिर किसी तश्तरी में इस
उदासी को डाल कर दूर आसमान में उछाल पाता और देखता रहता उस उदासी को सूरज
के अन्दर समां कर झुलस जाते हुए... फिर शाम की चांदनी और ओस की बूंदों के
बीच अपनी मुस्कराहट लिए कुछ अच्छा सा खुशियों भरा पन्ना अपनी डायरी में सजा
रहा होता... लेकिन डायरी में भी तरह तरह के रंगों में लिपटी उदासी बिखरी
पड़ी होती है... कल रात लिखते लिखते कितने पन्ने फाड़ दिए, ऐसा लगा जैसे कुछ
भी बकवास लिखे जा रहा हूँ... जैसे किताबों के पन्ने कोरे हो गए हों... खाली
हो चुके मन को आप बाहर से
कितना ही संवार लें कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि कोरे पन्नों वाली किताब पर
जिल्द लगाने का कोई मतलब नहीं...
आज भी लिखने बैठा हूँ तो दिमाग में बस ये टूटे-फूटे से ख्याल उमड़ कर आ रहे
हैं, जैसे हर शब्द इधर उधर बेतरतीबी से बिखेर रहा हूँ... लेकिन फिर भी आज
सोचा, चाहे जो भी लिखूं उसे पोस्ट कर ही दूंगा... मैंने सुना है मौन रहना
लिखने के लिए बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन इतने मौन के बावजूद भी आज कलम
खामोश है...
कभी अपने मकान की छत पर जाता हूँ तो एक पतली सी दरार से
झांकते पीपल के उस नन्हें से पौधे को देखता हूँ, वहां उसके होने का कोई
भविष्य नहीं, फिर भी वो उसी ज़द्दोज़हद में पलते रहना चाहता है... लेकिन उसका
वहां रहना छत को कमज़ोर कर सकता है.. मैं भी कुछ चीजें अपने दिल की किसी
दरार में दबाकर बैठा हूँ शायद, काश कोई आकर मेरे मन के इस पीपल के पौधे को
हटा पाता... या फिर कम से कम यही बता देता कि वो दरार कहाँ है क्यूंकि मैं
खुद उस टीस को ढूँढ नहीं पा रहा हूँ...
ये पोस्ट पढ़ कर फिर से सलिल चाचू कहेंगे, वत्स चीयर अप... लेकिन क्या करूँ
पिछले १०-१५ दिनों की छटपटाहट के बाद भी बस यही कुछ लिख पाया हूँ...