Tuesday, September 24, 2013

देह के खरीददार...

सूरज धीरे-धीरे अपने गंतव्य की तरफ बढ़ रहा है... हम भी धीरे थके क़दमों से उस तरफ बढ़ रहे हैं, जिधर से चांदनी भी बच कर निकल लेना चाहती है... ये वो बदनाम रास्ते हैं जिसके उसपार भी जीवन बसता है... खिडकियों और अधखुले दरवाजों के पीछे से कई सूनी आखें नज़र आती हैं... उन खिडकियों और दरवाजों की भी ज़रुरत बस इतनी है कि वहां से इशारे देकर खरीददारों को बुलाया जा सके... मिलता होगा सुकून यहाँ आकर कई लोगों को भी, जाने कैसे होंगे वो लोग जिनकी जवानियाँ मचलती होंगी ये देखकर, लेकिन ये नज़ारा मुझे तो जैसे टूटा खंडहर कर गया.. भले ही इन स्याह गलियों की रातें रंगीन होती हों लेकिन ये रंग मेरे अन्दर की सफेदी को तार तार कर गया... मुझे वो अधनंगा जिस्म कीचड़ में लिपटा जान पड़ता है...

ऐसे मंज़र देखकर किसी का भी दिल छलनी हो जाये... वो कहते हैं सरकार इनकी हालत में बेहतरी के लिए कई योजनायें चलाती रहती है.... और फिर हम NGO वाले भी हैं ही... साफ सफाई के तरीके समझाकर और दवाई-कंडोम बांटकर जितना हो सके हम मदद करने की कोशिश कर रहे हैं... मैंने उनसे पूछा अगर इनके हाल की इतनी ही फिकर है सरकार को, तो इस धंधे को बंद क्यूँ नहीं करवा देती... उनके चेहरे पर खामोशी की एक शिकन उभर आई, कंडोम के पैकेट समेटते हुये बमुश्किल अपनी गंभीरता को मोड़ते हुये उन्होने कहा, सरकार ये नहीं करा सकती... उसके बस में कुछ नहीं...आखिर समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए वेश्या का होना ज़रूरी है... मैं निरुत्तर था, भले ही शायद मेरी उस उम्र की समझ के हिसाब से ये कोई दार्शनिक जवाब था, लेकिन मैं इसके पीछे इंसानी चमड़ी के अंदर छुपे भूखे भेड़ियों का स्वार्थ ज़रूर देख पा रहा था... वेश्या !!! एक ऐसा शब्द जिसको सुन कर सभी की नाक-भों सिकुड़ जाती हैं... एक घृणित नज़र, एक गंदी सोच, चलो कुछ संवेदनशील इंसान भी रहा तो कुछ पवित्र तो नहीं ही सोच पाता होगा....

खैर, हम कंडोम और दवाइयों का पैकेट उठाकर दूसरे कोठे की तरफ बढ़ गए... दरवाजे पे ही एक लड़की थी...  देखने से करीब 21-22 के आस पास...हमने उसे कुछ दवाइयाँ और कंडोम के कुछ पैकेट दिये... उसने कहा वो तो हर रोज़ दवाइयाँ खाती है... 
"कौन सी.... " 
वो अंदर गयी और एक दवाई की स्ट्रिप ले आई उठाकर...
"ORADEXON.... "' 
"ये कौन सी दवाई है ???"
"वो मेरे को नहीं पता, आंटी ये पैकेट देकर जाती है तो मैं खा लेती है... एक साल से खा रही है मैं .... "
मेरे एक साथी ने वहीं मोबाइल में गूगल पर सर्च करके जब दिखाया तो शरीर कांप गया था मेरा... हमने तुरंत पूछा...
"उम्र क्या है तुम्हारी ????"
"वो पता नहीं है मेरे को, लेकिन सब कहते हैं जभी "दिलवाले दुलहनियाँ ले जाएँगे..." आई थी न, तभी मुझे भी कोई छोड़ गया था इधर... " 
DDLJ मतलब 1995, यानि कि महज 14 साल... 
पता चला यहाँ कई लड़कियां 13-14 साल की उम्र से ही ये टैबलेट लेती हैं, इस टैबलेट की सप्लाई बांग्लादेश से आती है शायद...  
दरअसल ये टैबलेट कम उम्र की लड़कियों को भरा-पूरा बनाने के लिए यूज किया जाता है... जिससे वो लड़कियां बड़ी दिखने लगें... गोश्त बढ़ाने के लिए ताकि उन भेड़ियों को पसंद आए... उनकी सेहत के साथ इतना भद्दा खिलवाड़ उनके लिए जिनको सभ्य बनाए रखने की बात कुछ देर पहले मेरे साथी कर रहे थे...
"मुझे नहीं पता किस तरह के लोग वेश्याओं के पास क्या तलाशने जाते हैं, संवेदनहीनता की इंतिहा ही है ये... " और वो कहते हैं सभ्य बनाने के लिए... क्या उन लोगों को खुद के चेहरे पर थूक के छींटे महसूस नहीं होते.... मुझे तो कभी-कभी इंसान होने पर भी जिल्लत महसूस होती है...   

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