Tuesday, February 17, 2015

तुम ज़िंदगी हो मेरी...

तुम प्रेरणा हो मेरी,
तुम धारणा हो मेरी
अकेलेपन के जंगलों में
अचानक से मिले
इक कल्पतरु से छन कर
आती हुयी छांव हो मेरी...

गयी शाम
एक हल्का सा बादल
समेट रखा था,

एक शिद्दत से
जो बारिश की कुछ बूंदें
निचोड़ी उस बादल से,
लम्हा-लम्हा जोड़ कर जो की
तुम वो साधना हो मेरी...

तल्ख़ हुए हैं कई बार
शायद कुछ शब्द मेरे,
उसी तरह जैसे
कभी-कभी मैं झुँझला जाता हूँ
अपने आप से भी, 
खुद से लड़ते हुए
चलता हूँ जिसके साथ हमेशा
तुम वही ज़िंदगी हो मेरी...

तुम प्रेरणा हो मेरी...
तुम साधना हो मेरी.... 

डिस्क्लेमर :- एक-दो पंक्ति सुनी थी उससे ही पूरा कुछ लिख डाला...
Do you love it? chat with me on WhatsApp
Hello, How can I help you? ...
Click me to start the chat...