Tuesday, March 29, 2016

एकांत...

खिड़की के चार सींखचों और
दरवाज़े के दो पल्ले के पीछे
इस बेतरतीब बिस्तर
और इन तकियों के रुई के फाहे में,
बिना रुके इस घुमते पंखे
और इस सफ़ेद CFL की रौशनी में,
हर उस शय में
जो मुझे इस कमरे के
चारो तरफ से झांकती है...
इस घुटन में
पालथी मार के बैठा है
चपटा हुआ चौकोर एकांत...
 
मैं इस एकांत को,
तह-तह समेटता हूँ
इसके मुड़े-तुड़े कोनों पर
इस्तरी लगाके इसकी सिलवटों को
समतल करता हूँ,
लेकिन हर बार ये एकांत
वापस छितर जाता है
हर कोने में,
क्या इस एकांत को
बंद किया जा सकता है
किसी बोतल में
और फेक दिया जाए
किसी सागर की अथाह गहराईओं में,
तुम्हारी आँखें भी मुझे
किसी समंदर सा एहसास दिलाती हैं,
क्या पी जाओगी मेरा ये सारा एकांत...
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