Wednesday, January 12, 2011

बुढ़ापा...

               कमरे में दो चारपाइयाँ बिछी हैं। बीच में एक दहकती हुई अँगीठी कमरे को गर्म कर रही है। एक चारपाई पर बूढ़ा और दूसरी पर बुढ़िया रजाई ओढ़कर बैठे हुए हैं। वे यदा-कदा हाथ अँगीठी की तरफ बढ़ा देते हैं। दोनों मौन बैठे हैं, जैसे राम का जाप कर रहे हों।
“ठण्ड ज्यादा ही पड़ रही है।” बूढ़ी बोली,“चाय बना दूँ?”
“नहीं।” बूढ़ा अपना टोपा खींचते हुए बोला,“ऐसी कोई खास सर्दी तो नहीं।”
बूढ़ी खाँसने लगी। खाँसते-खाँसते बोली,“दवा ले ली?”
बूढ़े ने प्रतिप्रश्न किया,“तुमने ले ली?”
“मेरा क्या है! ले लूँगी।” वह फिर खाँसने लगी।
“ले लो, फिर याद नहीं रहेगा।” बूढ़ा फिर कुछ याद करते हुए बोला,“हाँ, आज बड़के की चिट्ठी आई थी।”
बूढ़ी ने कोई जिज्ञासा नहीं दिखाई तो बूढ़ा स्वत: ही बोला,“कुशल है। कोई जरूरत हो तो लिखने को कहा है।”
“जरूरत तो आँखों की रोशनी की है।” बूढ़ी ने व्यंग्य किया,“अब तो रोटी-सब्जी के पकने का भी पता नहीं लगता।”
“सो तो है।” बूढ़ा सिर हिलाते हुए बोला,“लेकिन वह रोशनी कहाँ से लाएगा!”
कमरे में फिर मौन छा गया। वह उठी, अलमारी से दवा की शीशी निकाली और बोली, “लो, दवा पी लो।”
बूढ़ा दवाई पीते हुए बोला,“तुम मेरा कितना खयाल रखती हो!”
“मुझे दहशत लगती है तुम्हारे बिना।”
“तुम पहले मरना चाहती हो? मैं निपट अकेला कैसे काटूँगा?”
“बड़का है, छुटका है। फिर मरना-जीना अपने हाथ में है क्या?”
बूढ़े ने आले में पड़ी घड़ी की तरफ देखा,“ग्यारह बज गए।”
“फिर भी मरी नींद नहीं आती।” बूढ़ी बोली।
“बुढ़ापा है। समय का सूनापन काटता है।” बूढ़ा लेटते हुए, खिड़की की तरफ देखकर बोला,“देखो, चाँद खिड़की से झाँक रहा है।”
“तो इसमें नई बात क्या है?” बूढ़ी ने रूखे-स्वर में टिप्पणी की।
“अच्छा, तुम ही कोई नई बात करो।” बूढ़ा खीझकर बोला।
“अब तो मेरी मौत ही नई घटना होगी।”
कमरे में फिर घुटनभरा मौन छा गया।
“क्यों, मेरी मौत क्या पुरानी घटना होगी?” बूढ़े ने व्यंग्य और परिहास के मिले-जुले स्वर में प्रतिवाद किया।
“तुम चुपचाप सोते रहो।” बूढ़ी तेज स्वर में बोली,“रात में अंट-संट मत बोला करो!” 

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