ये कैसी दुनिया है,
जहाँ मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन है,
कैसा शोर है ये चारो तरफ
जहाँ पंछियों की चहचहाहट सुनाई नहीं देती,
यह कैसी लालिमा है रक्त की,
जिसके आगे सृष्टि के सुन्दर नज़ारे धूमिल हो गए...
कैसी छींटें पड़ी हैं ये शरीर पर,
यह होली रंगों की तो नहीं है शायद,
ये कैसी भीड़ है जहाँ अपने बेगाने हो गए...
क्यूँ आज इंसान इंसान से डरता है,
ह्रदय की कोमल धरा पर यह कांटे क्यूँ उग आये हैं,
जीवन के मायने कुछ बदल से गए हैं,
अब अपनी जीत शायद दूसरों की हार में है,
आखिर यह संघर्ष क्यूँ ? ? ?
क्या है इस वर्चस्व की लड़ाई का मतलब ? ? ?
इस धरती का सुन्दर गुलशन
शायद बंजर हो चला है...
यह वो दुनिया तो नहीं जो ईश्वर ने बनायीं थी,
यह तो कोई और ही नयी दुनिया है....