आत्महत्या को, खुद को खुद से आज़ाद करने की एक पहल के रूप में देखा जा सकता है... क्यूंकि इंसान कभी न कभी हार ही जाता है... कहते हैं ज़िन्दगी खुदा की दी गई खुबसूरत नेमत है. लेकिन जब इसकी ख़ूबसूरती से ही नफरत होने लगे तो.... आत्महत्या करने वालों को सब कायर कह देते हैं, लेकिन कभी गौर से सोचा तो जाना कि आत्महत्या करना भी अपने आप में कितनी हिम्मत से भरा फैसला है.... आखिर इस ज़िन्दगी से किसे लगाव नहीं होता, सभी इसे दिल से जीना चाहते हैं, इसकी धुन में मस्त होकर साथ साथ गाना चाहते हैं.... लेकिन जब ये मस्तानी धुन कानफाड़ू शोर में तब्दील हो जाए, तो सारे बंधन तोड़ कर बस आज़ाद होने का दिल करता है.... हालाँकि ये आजादी कभी भी किसी आशावादी इंसान को रास नहीं आएगी, लेकिन कभी न कभी जैसे हर चीज़ से नफरत होने लगती है... इंसान हर किसी से नफरत करके उबर सकता है, नए सिरे से जी सकता है... लेकिन अपने आप से जब नफरत होने लगे तो फिर और कुछ समझ नहीं आता... मैं आत्महत्या को किसी भी तौर पर सही नहीं ठहराना चाहता, बस उन सभी लोगों से सहानुभूति है जिन्होंने कई कठिन परिस्थितियों में अपनी ज़िन्दगी को ख़त्म करने का फैसला लिया... पता नहीं क्यूँ ये बात बहुत STRONGLY कहना चाहता हूँ कि वो कायर नहीं थे, बस उन्हें ज़िन्दगी जीने का हुनर नहीं आया... वो थक गए, अपने आप से, अपने सपनों से, अपनी ज़िन्दगी से....
मुझे नहीं पता कि आपमें से कितने लोगों के जहन में कुछ लम्हों के लिए ही सही लेकिन कभी अपने आप को ख़त्म करने का ख्याल आया होगा, फिर भी मुझे लगता है कि शायद वो लोग अकेले नहीं हैं जो खुद अपने आप की नफरत के शिकार हो गए... मुझे डर है अपने आप से बढती हुई ये नफरत कहीं अपनी ही जान लेने पर मजबूर न कर एक दिन...
इस पोस्ट पर आने वाली टिप्पणियों के प्रकार का पूर्वाभास है मुझे, इसलिए कृपया सहानुभूति या आशावादी बनने की प्रेरणा से भरी टिपण्णी न करें ... आपने पढ़ा आपका शुक्रिया...
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