पिछले तीन दिनों में दो बेहतरीन फिल्में देखीं.. एक तो 'कहानी' और एक 'पान सिंह तोमर'.... रॉकस्टार के बाद से एक अच्छी मूवी का इंतज़ार कर रहा था, और एक के साथ एक फ्री की तर्ज़ पर दोनों फिल्में आई हैं... दोनों फिल्मों में कई बातें कोमन हैं... सबसे पहले तो दोनों ही फिल्मों में गाने नहीं हैं (अगर बीच बीच में आने वाले बैकग्राउंड स्कोर की बात न करें तो ), और दोनों फिल्में किसी न किसी रूप में आपको लड़ते रहना सिखाती हैं, जैसा कि पान सिंह तोमर कहते हैं, रेस में एक असूल होता है जो एक बार आपने रेस शुरू कर दी तो उसको पूरा करना पड़ता है, फिर चाहे आप हारें या जीतें... आप सरेंडर नहीं कर सकते... खैर आज बातें सिर्फ पान सिंह तोमर की करूंगा...
फिल्म में पान सिंह का किरदार बहुत ही स्ट्रोंग बनकर उभरता है, उनका अभिनय, संवाद अदायगी से लेकर बॉडी लैंग्वेज पूरी तरह से आपको बांधे रखते हैं... जब फिल्म के शुरुआत में ही पान सिंह कहता है कि ''बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में '' उसी समय अंदाजा लग जाता है कि फिल्म में मज़ा आने वाला है... फिल्म में सभी किरदार अपनी अपनी जगह पक्की करते हैं, बस " कहानी" फिल्म में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी का मजबूत किरदार देखने के बाद इसमें उनका छोटा किरदार निराश कर देता है... संवाद एकदम चम्बलिया भाषा में लिखे गए हैं, जो आपको उसी माहौल में ले जाते है जिनमे ये सब कुछ घटित हुआ था... फिल्म कभी भी बोर नहीं करती... बीच बीच में हलके फुल्के हास्य संवाद आपको थोडा मुस्कुराते रहने का मौका देते हैं...
अगर फिल्म के कथानक पर आयें तो पान सिंह हर उस इंसान के अन्दर की आवाज़ है जो सिस्टम से परेशान है, जो देश की आर्मी में इतने साल रहने के बाद में सरकार के खिलाफ ही बन्दूक उठाकर बागी बन जाता है... फिल्म में पान सिंह का वो डायलोग कि सरकार तो चोर है.... देश में आर्मी को छोड़कर सब चोर हैं... कहीं न कहीं आज के हालात पर करारा तमाचा जड़ता है.. अपनी कड़क ठेठ बोली में भी पान सिंह हर बार दुखी नज़र आता है, उसके मन की वो टीस बरबस ही उसके चेहरे पर दिख जाती है कि जब उसने देश के लिए इतने मेडल लाये तब उसे किसी ने नहीं पूछा, और जब उसने बन्दूक उठा ली तो पूरा देश उसके बारे में बात कर रहा है... फिल्म पान सिंह और उस जैसे बागियों के बदले की कहानी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है... इस कहानी की ख़ास बात ये है कि ये फ़िल्मी नहीं है, कहीं से भी बनावटीपने की झलक नहीं है इसमें...
फिल्म जब ख़त्म होती है तब तक मन भारी हो चुका होता है, ये फिल्म आपको ये सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी कि आखिर पान सिंह कब तक बनते रहेंगे... ऐसे लोग कहीं बाहर से नहीं आते, ये तो हर गैरतमंद इंसान के अन्दर रहते हैं... कभी हालात और कभी अन्दर रगों में दौड़ता खून जिल्लत सहने की गवाही नहीं देता... पान सिंह आज भी जिंदा है हमारे अन्दर, जब भी किसी के धैर्य का बाँध टूटता है वो खुल कर सामने आता है... फिल्म के अंत में तिग्मांशु देश के उन भुला दिए गए खिलाडियों को याद करना नहीं भूलते जो सरकार की अनदेखी का शिकार हो गए... कितने पैसे के अभाव में मर गए और कितनो को अपना गोल्ड मेडल तक बेचना पड़ा...
पहली बार किसी फिल्म के बारे में पोस्ट लिख रहा हूँ, ताकि बड़े बैनर की कोई थर्ड क्लास फिल्म देखने की बजाय आप इस फिल्म को देखने के लिए समय निकालें, और इस तरह की फिल्में बनती रहे... परदे के आगे और परदे के पीछे काम करने वाले फिल्म के सारे किरदारों को बधाई देता हूँ जिन्होंने इस तरह की कहानी उठाई...
फिल्म जब ख़त्म होती है तब तक मन भारी हो चुका होता है, ये फिल्म आपको ये सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी कि आखिर पान सिंह कब तक बनते रहेंगे... ऐसे लोग कहीं बाहर से नहीं आते, ये तो हर गैरतमंद इंसान के अन्दर रहते हैं... कभी हालात और कभी अन्दर रगों में दौड़ता खून जिल्लत सहने की गवाही नहीं देता... पान सिंह आज भी जिंदा है हमारे अन्दर, जब भी किसी के धैर्य का बाँध टूटता है वो खुल कर सामने आता है... फिल्म के अंत में तिग्मांशु देश के उन भुला दिए गए खिलाडियों को याद करना नहीं भूलते जो सरकार की अनदेखी का शिकार हो गए... कितने पैसे के अभाव में मर गए और कितनो को अपना गोल्ड मेडल तक बेचना पड़ा...
पहली बार किसी फिल्म के बारे में पोस्ट लिख रहा हूँ, ताकि बड़े बैनर की कोई थर्ड क्लास फिल्म देखने की बजाय आप इस फिल्म को देखने के लिए समय निकालें, और इस तरह की फिल्में बनती रहे... परदे के आगे और परदे के पीछे काम करने वाले फिल्म के सारे किरदारों को बधाई देता हूँ जिन्होंने इस तरह की कहानी उठाई...
फिल्म ज़रूर देखें और देखने के बाद ज़रूर बताईयेगा कि कैसी लगी आपको फिल्म...फिल्म के अभिनय, संवाद, कहानी, तकनीकी और गैर तकनीकी सभी बातों को ध्यान में रखते हुए मेरी तरफ से फिल्म को 4.0/5 स्टार्स...