Saturday, December 01, 2012

कहो तो आग लगा दूं तुम्हें ए ज़िन्दगी...

कभी कभी मुझे लगता है लिखना एक बीमारी है, एक फोड़े की तरह.. या फिर एक घाव जो मवाद से भरा हुआ है... जिसका शरीर में बने रहना उतना ही खतरनाक है, जितना दर्द उसको फोड़कर बहा देने में हो सकता है.. कभी अगर डायरी में लिखने का मन करता है तो घंटों डायरी के उस खाली पन्ने को निहारता रहता हूँ... फिर मन मार कर कुछ लिखने बैठता हूँ, लिखने की ऐसी कोई महत्वाकांक्षा नहीं, बस उस पन्ने की पैरेलल खिची लाईनों के बीच अपने मुड़े-तुड़े आवारा ख्यालों का ब्रिज बनाते चलता हूँ... खुद से लड़ता-झगड़ता हुआ हर एक वाक्य उन पन्नों पर उतरता जाता है... दूसरे जब मेरा लिखा पढ़ते हैं तो उनकी नज़र में, लिखना किसी फंतासी ख़याल जैसा मालूम होता है, लेकिन असल में ये एक रगड़ की तरह है... जब कोई सूखी पुरानी लकड़ी अचानक से आपके गालों पे खूब जोड़ से रगड़ दी जाए, इसी जलन और दर्द की घिसन के कुछ शब्द निकलकर चस्प हो जाते हैं कागजों पर... कागज़ बेजान होते हैं लेकिन वो दर्द बेजान नहीं होता... 

उस कागज़ पर मेरी बेबसी छप आई है, एक कायरता, खुद से भागते रहने की पूरी कहानी... ऐसी कहानी जिसे अगर खुद दुबारा पढ़ लूं तो खुद को आग में झोक देने का दिल कर जाए... ऐसे में कभी कभी गुस्सा भी बहुत आता है कि मैं सिगरेट क्यूँ नहीं पीता, दिल करता है ८-९ सिगरेट एक बार में ही पी जाऊं, चेन स्मोकर टाईप... हर कश के धुएं के साथ अपने आंसू की हर एक बूँद को भाप बना कर उड़ा दूं...  बाहर से न सही तो कम-से-कम अन्दर से धुंआ-धुंआ कर दूं अपने शरीर को... कागज़ के पन्ने पर फैले उस कचरे के ढेर को चिंदी चिंदी कर हवा में उड़ा देता हूँ.. हवा में उड़ते वो टुकड़े भी जैसे मेरे चेहरे पर ही थू-थू कर रहे हैं... मैं रूमाल निकाल कर अपना चेहरा पोंछ लेना चाहता हूँ, लेकिन वो तो चेहरे से होते हुए मेरे वजूद पर उतर गया है... 

पलटकर घडी को देखता हूँ, सुबह के ४ बजने वाले हैं... ये भी कोई वक़्त है जागते रहने का... मैं फिर से बीमार-बीमार सा फील कर रहा हूँ... मन के भीतर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से चलते हुए अंधड़ में तना-दर-तना उखड़ता जाता हूँ....  कमबख्त नींद भी नहीं आती, करवटें पीठ में चुभने लगती हैं... बेबसी से कांपते हुयी अपनी आवाज़ को द्रढ़ता की शॉल में लपेटकर खूब जोर से चिल्लाने का मन करता है... काश कि सपने भी सूखे पत्तों के ढेर की तरह होते... सूखे पत्ते जल भी तुरंत जाते हैं और उनमे ज्यादा धुंआ भी नहीं होता... लेकिन खुद अपने हाथों से अपने सपने जला देना उतना आसान भी तो नहीं... खिड़की से बाहर बंगलौर चमक रहा है, लेकिन अन्दर निपट अँधेरा है... आस-पास माचिस भी नहीं जो आग लगा सकूं इन कागज़ के पन्नों को....
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