Wednesday, August 28, 2013

उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन और एक फिल्म "Listen...Amaya"

बीती रात एक फिल्म देखी, "Listen... Amaya"... काफी दिनों से इस फिल्म को देखने का सोच रहा था... फारूक शेख और दीप्ति नवल के जानदार अभिनय ने गज़ब का मैजिक क्रियेट किया है... स्वरा भास्कर ने अमाया के किरदार को इतना बेहतरीन निभाया है कि उस किरदार में उसकी जगह और किसी को सोच भी नहीं सका... वो अच्छी फिल्मों के प्रोजेक्ट्स ले रही हैं जिससे उनका फिल्मों और रोल्स का चयन भी प्रभावित करता है... फिल्म का निर्देशन लाजवाब है, छोटे-छोटे दृश्यों को भी प्रभावशाली बनाया गया है.. लेकिन इन सारी बातों से अलग जिस चीज ने सबसे ज्यादा सोचने पर मजबूर किया वो थी इसकी कहानी, इस फिल्म की कहानी कई हद तक राजेश खन्ना और स्मिता पाटिल की फिल्म अमृत की याद दिलाती है... 

इस फिल्म को देखकर लगातार ये सोचता रहा कि अगर मैं अमाया की जगह होता तो क्या करता, क्या हमारा समाज इतना परिपक्व हो गया है कि इस तरह की परिस्थिति के अनुरूप खुद को ढाल सके... जब एक युवा अपनी मर्ज़ी से विवाह का फैसला करता है तब यही समाज और यही माता-पिता उसपर न जाने कितने दवाब डालते हैं... आज भी छोटे शहरों में प्रेम-विवाह, अंतरजातीय विवाह, या फिर लिव-इन रिलेशनशिप को स्वीकार नहीं किया गया है... फिर कैसे ये समाज किसी बुजुर्ग को वही काम करने की आजादी दे देगा...  जब कभी बच्चे ऐसा कोई सम्बन्ध निबाहने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें समाज की दुहाई दी जाती है, फिर कैसे वो बच्चे अपने माता/पिता के ऐसे किसी सम्बन्ध को लेकर उसी समाज से नज़रें मिला पायेंगे... 

अक्सर सांझ बहुत सुहावनी होती है, लेकिन कभी-कभी अकेलापन इसी संध्या को बोझल बना देता है.. और अगर वो जीवन संध्या हो तो ? एक इंसान अपनी ज़िन्दगी में कई सारे नुक्कड़ों से होकर गुज़रता है... कई सारे संघर्षों और ज़द्दोज़हद से लड़ता हुआ, अडिग अपने कर्म करता जाता है... लेकिन जब वो ज़िन्दगी के आखिरी नुक्कड़ की और जाने वाली सड़क पर होता है तो उसके पग भी हलके-हलके कांपते ज़रूर हैं... घर-परिवार-नौकरी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुका वो इंसान इस दौड़ती-भागती दुनिया को अपने पैरों की कम्पन नहीं दिखाना चाहता... अधिकतर बच्चे भी नौकरी की भागादौड़ी में दूसरे शहर चले जाते हैं... कई बार तन से बूढा हुए बिना ही इंसान मन से बूढा हो जाता है... जब इस बार घर गया था तब बातों ही बातों में माँ-पापा का दर्द महसूस कर पाया, माँ ने कहा आजकल पैसे तो सभी के पास हैं लेकिन समय किसी के पास नहीं... ऐसे में बस उसके साथ उनका हमसफ़र ही होता है जो बिना बताये सब समझ लेता है...

लेकिन ऐसे में, अगर एक हमसफ़र ही पीछे छूट गया तो... हम शायद उस अकेलेपन की कल्पना भी नहीं कर सकते... उनकी ज़िन्दगी कैसी बेरौनक हो जाती है... लगभग इसी तरह के विषय पर रश्मि दी की कुछ पोस्ट्स पढ़ी थीं, उस समय तो यूँ ही पढ़ गया था लेकिन जब ऐसी घटनाएं विजुअल्स में कन्वर्ट हो जाती हैं तो दिमाग सोचने पर मजबूर हो ही जाता है... अब बात ये है कि क्या इस उम्र में विवाह करना उचित है, सामजिक वर्जनाओं के अलावा भी कई बातें हैं जो परेशानियां पैदा कर सकती हैं, मसलन संपत्ति का बटवारा हो या फिर परिवार में आये इस बदलाव के साथ सामंजस्य... ऐसे में रश्मि दी ही एक और सुझाव लेकर आती हैं, वो है लिव-इन रिलेशनशिप, लेकिन बात फिर वहीँ आकर अटक जाती है कि क्या हमारा परिवार और समाज इसे स्वीकार कर पायेगा...

लेकिन जिन्होंने कभी हमारे लडखडाते हुए से क़दमों को रास्ते नापने की समझ सिखाई, क्या हम उन्हें इतनी सी आजादी भी नहीं दे सकते कि अगर वो चाहें तो उम्र के उस आखिरी नुक्कड़ तक जाने वाली सड़क पर वो भी किसी का हाथ थाम सकें और ऐसी किसी परिस्थिति में अगर कोई बुजुर्ग ऐसा निर्णय लेते हैं तो हम भी पूरे सम्मान के साथ इसे स्वीकार सकें...

खैर, इस फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिख सका, लेकिन अगर आप अपनी व्यस्त ज़िन्दगी से दो घंटे निकाल कर इस फिल्म को देख सकें तो ज़रूर देखें और सोचें कहीं हम उन्हें किसी ख़ुशी से वंचित तो नहीं कर रहे हैं... फिल्म DVD और यू ट्यूब दोनों पर उपलब्ध है...
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