Monday, August 19, 2013

कुछ सिलवटें खुली हैं ज़िन्दगी की...

ये दुनिया फरेबी है बहुत और हम हर किसी पर ऐतबार करते जाते हैं... कोई कल कह रहा था एक नीले रेगिस्तान से बारिश की बूँदें टपकती हैं,  आखें बंद करके महसूस करने की कोशिश की तो ऐसा बवंडर आया जो मेरे कई सपनों को रेत के ज़र्रे की तरह उड़ा कर ले गया... सेहरा की गीली रेत पर कुछ लिखने का जूनून अब जाता रहा है उस बवंडर के बाद.... ए खुदा ये क्या आवारगी लिख दी है तुमने बादलों की छत पर... जब भी मेरा दिल उदास होता कमबख्त बरस पड़ते हैं मुझ पर ही... न जाने कैसे सुन लेता वो मेरी उदासियों को भी लेकिन मेरी जेब में खामोशी का एक जंगल है, उसको ये बेवजह की बारिश पसंद नहीं...बारिश की इस नमी के कारण ख़ामोशी का कुरकुरापन चला जाता है, और ख़ामोशी की आवाजें भी खो जाती हैं... कल मैं काफी देर तक बारिश की बूंदों से बातें करता रहा, उनसे कहानियाँ सुनी ढेर सारी... कुछ समंदर की, नदियों की, बादलों की और उस महक की भी जब वो बूँदें जलती हुयी जमीन से गले मिलती हैं... कितनी अजीब बात है न, बारिश के बूंदों की कोई महक नहीं होती है और न ही उस मिटटी की लेकिन दोनों का मिलन ज़न्नत की सी खुशबू बुन देता है...

नवम्बर की उस बारिश में भीगते हुए
तुम्हारे लिए कुछ आसूं भी बहाए हैं हमने,
जब कर दिया था बेपर्दा तुमने मेरे नाज़ुक से सपनों को
रोते हुए दो ख़त तुम्हारे भी जलाए हैं हमने...

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अपने मेज की दराज में कुछ पुराने पते टटोलता हूँ... बीती रात का चाँद जाते-जाते अपना पता छोड़ गया था, अपनी नयी किताब में चांदनी से कुछ शब्द जगाने हैं... चांदनी की स्याही सफ़ेद ही होगी न, चमकती हुयी सी... मेरी दिली ख्वाईश है कि  इस किताब को पढने के लिए रौशनी के होने की बंदिश न रहे... अँधेरे में कहानियाँ अपनी सी लगने लगती हैं और हम अगल-बगल के अन्धकार से दूर उन लफ़्ज़ों की रौशनी में डूब जाते हैं...
किसी ख़ुशमिज़ाज ने ही लिखा होगा चाँद की इस बला सी खूबसूरती को... मैं बैठा हूँ मुंडेर पर और जला रहा हूँ उस चाँद को कि कुछ नज्में लिख दूं अपनी किताब के लिए, लेकिन ये झुलसा हुआ चाँद कभी-कभी तंदूर की अधजली रोटी की तरह लगता है... गुलज़ार ने यूँ ही थोड़े न कहा है कि...

मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने,

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे...

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दिन ढल गया है लेकिन शाम नहीं आई अभी तक, उस पहाड़ के पीछे वाले गावं ने रोक लिया है सूरज को डूबने से... कुम्हारों ने कुछ गमले बनाये हैं, आज ही पकाकर बेचना है बाज़ार में... कुछ पैसे आ जाएँ तो जलेगा चूल्हा, सुना है उनके घर में खाना नहीं बना सुबह से कुछ... कुछ बच्चों की भूख टंगी है आसमान में, उस सूखे सूरज और गीले से चाँद के बीच... 

वो नुक्कड़ का बनिया अब उधार नहीं देता,
बच्चे वहां बिकती मिठाई को देख ललच से जाते हैं,

भूख बिकती है बाज़ार में पर खाना नहीं मिलता...

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