अधपकी बालियाँ उभर आई हैं,
जब पलटता हूँ उन्हें तो
वो बालियाँ अलफाज बन उतर आती हैं...
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एक गुलाबी सा शहर है
उसकी उल्टी-पुल्टी सड़कों पर
सपनों मे बेवजह की रेत लिखता हूँ
और उड़ा देता हूँ हर सुबह...
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आड़े-तिरछे खयालों में
ज़िंदगी के झरोखों से
कुछ नीली धूप आ जाती है,
उस धूप में पका देता हूँ अपने आप को....
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डूबते सूरज के पीछे
एक लंबी कतार देखता हूँ
ये भीड़ अगर थोड़ी जगह
मुझे भी दे तो
एक प्याला नारंगी रंग मैं भी कैद कर लूँ...
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कुछ-एक साल पहले
इक अनजानी सड़क के
नो-पार्किंग के बोर्ड के नीचे
अपने कुछ सपने पार्क कर दिये थे,
इसके जुर्माने में अपनी पूरी ज़िंदगी
चुका कर आया हूँ....