Thursday, June 02, 2011

एक अकेला इस शहर में...

             पिछले कई दिनों से अधूरा सा कुछ ड्राफ्ट में पड़ा था, उसे वैसे का वैसे ही आपकी नज्र कर रहा हूं...
             दिल्ली, एक शहर जिसमें न जाने कितने सपने पलते हैं, न जाने कितने सपने हर रोज पसीने बन कर बह जाते हैं और न जाने कितने सपने भूखे पेट दम तोड़ देते हैं | कुछ सपनों का बस्ता काँधे पर लटकाए मैं भी दिल्ली आया हूँ, नया शहर, नयी नौकरी, नए लोग और बिलकुल अलग ही तरह का माहौल, दिलवालों की दिल्ली में असल में कितने दिलवाले बचे हैं ये तो नहीं पता लेकिन एक बात तय है कि यहाँ जिंदा रहने की कवायद में दिल से ज्यादा दिमाग से काम लेना पड़ता है....
             यहाँ रास्तों और गलियों में भटकना आसान है और अगर आपमें दम है तो उससे भी ज्यादा आसान है अपनी मंजिल पा जाना... हर सुबह एक नयी जंग के साथ शुरू होती है, और दिन उसी जद्दोजहद में बीत जाता है... यहाँ रातों में सन्नाटा नहीं पसरता, बल्कि रौशनी से नहाई हुयी सड़कों पर चहलपहल बनी रहती है.... यहाँ की ये भागदौड़ आपको और कुछ सोचने का समय भी नहीं देती, ऐसा लगता है जैसे ज़िन्दगी फास्ट फॉरवर्ड मोड में चल रही है .... कभी फुर्सत में ज़िन्दगी बीते लम्हों का हिसाब मांगती है तो हमारे पास कुछ भी तो नहीं होता... 
              यहाँ ज़िन्दगी हर रोज नए सपने दिखाती है, और वो अधूरे पुराने सपने न जाने किस कोने में खो से जाते हैं, जो कभी हमने बड़े प्यार से बोये थे... अब तक जितना भी इस शहर को जान पाया हूँ, यहाँ सबसे ज्यादा मुश्किल है अपनी पुरानी पहचान बनाये रखना... आसपास फैली ये इंसान रुपी मशीनों की भीड़ उस पहचान से बिलकुल परे है जिन्हें लेकर हम इस दुनिया में आये थे...
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