कई दिनों से या कहूं तो कई सालों से ये सवाल दिमाग में आता रहता है | हम क्यूँ जीते हैं, हमें ये जीवन क्यूँ मिला है, जब कि हम जानते हैं कि एक दिन चले जाना है बस चले जाना है. कहाँ वो भी पता नहीं, और हमारी बदनसीबी तो देखिये वो दिन भी पता नहीं है... न जाने लोग कितनी मेहनत से इस ज़िन्दगी को सजाते हैं, संवारते हैं और एक दिन बस अचानक से ही पर्दा गिर जाता है... न कोई रिहर्सल न ही कोई रिटेक..एक बार में ही सारे नाटक की समाप्ति... कहने को इंसान अपने रास्ते खुद चुनता है लेकिन वो उस रास्ते पर कब तक और कितनी दूर चल सकेगा ये न वो जानता है और न ही और कोई...जानती है तो बस ये ज़िन्दगी...
मैं भी इसी ज़िन्दगी के परतों में उलझा एक बेबस कलाकार ही हूँ जो इस नौटंकी का हिस्सा है, जो सपने तो देखता है लेकिन जिसका सच होना या न होना उसके हाथ में नहीं | जिसने अपने ज़िन्दगी के पिछले २६ साल इस ज़िन्दगी को सजाने में लगा दिए, इस चीज की परवाह किये बिना कि इसे कितना जी पाऊंगा... एक लड़के के बारे में बताता हूँ, नाम याद नहीं लेकिन नाम में क्या रखा है...एक मध्यमवर्गीय परिवार से था, पढने में सामान्य लेकिन मेहनती | चौथी क्लास से ही घर से बाहर होस्टल में रहा अपने माँ बाप से दूर, सोचा जब पढ़ लिख कर के बड़ा आदमी बन जाएगा तो अपने माता-पिता के साथ रहेगा.... उसका सपना पूरा भी हुआ, एक दिन अच्छी सी नौकरी मिल ही गयी, ख़ुशी ख़ुशी घर लौट रहा था कि रास्ते में एक एक्सीडेंट में उसकी जान चली गयी... बेचारे ने कितनी मेहनत से ज़िन्दगी से कुछ हासिल किया लेकिन परिणाम तो कुछ और ही लिखा था किस्मत में...
खैर ये रिश्ते-नाते, दोस्त, हमसफ़र ये तो बस यूँ ही है बस उस मोड़ तक जहाँ के बाद अन्धकार है, शून्य है... उसके आगे के सफ़र पर इनकी कोई जरूरत नहीं, उसके आगे ही क्यूँ इसी ज़िन्दगी की कई पगडंडियों पर ही न जाने कितने रिश्ते दम तोड़ देते हैं... यहाँ कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं... सब खुद अपने आप में उलझे हैं और उसी शून्य की तरफ बढ़ रहे हैं ... अब कोई दिन तो मुक़र्रर तो है नहीं तो आज सोचा उस शून्य के आने से पहले एक बार इस ज़िन्दगी को अलविदा कहता चलूँ....
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