गुलमोहर तुम तब भी थे न,
यूँ उन पक्की सड़कों पर
अपने स्कूल की तरफ
और देखता रहता था तुम्हें
अपनी नन्हीं अचरज भरी आखों से...
हर महीने के
हर महीने के
मेरे इंतज़ार से बेखबर
आते थे केवल अप्रैल-मई में ही
और रंग देते थे सड़कों की छत
अपने इस लाल-केसरिये रंग से...
तुम तब भी थे न
तुम तब भी थे न
जब धीमी धीमी बारिश में
तुम्हारे पेड़ के नीचे
तुम्हारे पेड़ के नीचे
छिप जाते थे हम
और तुम गिरा देते थे प्यार से
अपने फूलों का एक गुच्छा...
जाने तुमसे ऐसा कौन सा रिश्ता है,
बचपन से ही हर बार
अपनी अधखिली कलियाँ
मुझे दे जाते हो...
मुझे दे जाते हो...
लेकिन मुझे एक बात बताओ
क्या तुम्हें वसंत और सावन
कुछ भी पसंद नहीं
जो इस सूरज की तेज़ गर्मी में आते हो....
कितनी ही बार महसूस
किया है मैंने
हमेशा से ही आते हो
जब होता हूँ मुश्किलों में,
और जो हो जाते हो संग मेरे
बिखरते हुए मेरे अस्तित्व को
जब होता हूँ मुश्किलों में,
और जो हो जाते हो संग मेरे
बिखरते हुए मेरे अस्तित्व को
अजीब सा सुकून दे जाते हो...
कुछ तो कशिश है तुझमे
जो यूँ खिचा चला आता हूँ,
अपने प्यार की ये
मनोहर कहानियाँ
तुझसे बस तुझसे
बांटने लाता हूँ...
इन लाल-हरे फूल-पन्नों के बीच
रूप तुम्हारा गज़ब का
निखरता है,
इन दिनों मुझे आने वाले सपनो में
बस और बस
गुलमोहर बिखरता है.....
गुलमोहर बिखरता है.....