Tuesday, January 08, 2013

सिर्फ तन का भक्षण ही नहीं बल्कि मन का भक्षण भी बलात्कार है...


वो अजीब सा दिन था... उस दिन सिर्फ तुम्हारे कपडे ही नहीं बल्कि साथ ही साथ मेरा ज़मीर भी चीथड़े-चीथड़े होकर बिखर गया... काफी देर तक अपने शरीर से आती हुयी पुरुषत्व की बदबू महसूस की थी मैंने, खुद के ऊपर लज्जा आ रही थी, खुद के पुरुष होने पर ही तो.... वैसे भी अब ऐसा बचा ही क्या है एक पुरुष के पास जिसपर वो गर्व कर सके... उसके बाद न ही मैं कुछ सोच सका और न ही कुछ लिख ही सका.. ऐसा लगा जैसे अपने अन्दर का ये ज़ख्म मुझे खोखला कर चुका है.. ज़ख्म बढ़ता रहा, और आज जब इस ज़ख्म का मवाद इतना कचोट रहा है तो कुछ यूँ ही, जिससे शायद मन शांत हो सके...
ऐसा पाखंडी है ये तत्वहीन समाज, एक तरफ औरत को जननी कह कर पूजता है और एक तरफ, उसके जननांग से अपनी कभी न ख़त्म होने वाली भूख मिटाने को आतुर रहता है... सारे लोग, सारी भीड़ उन 6 लोगों को सजा देने की मांग कर रहे हैं... पर केवल उन्हें ही क्यों, उन्होंने ऐसा क्या अलग कर दिया जो हम नहीं करते, हमारा ये कथित बुद्धिजीवी समाज नहीं करता... बलात्कार तो सभी करते हैं, हमारा समाज करता है... फर्क इतना है कि उस दिन उसके शरीर के साथ हुआ और ऐसे आये दिन उसके वजूद, उसके अस्तित्व के साथ बलात्कार होता है...
बलात्कार पर कोई भी बहस करने से पहले क्या किसी ने जाना है कि इसका अर्थ क्या होता है.. मैंने जानने की कोशिश की, कि आखिर बलात्कार का अर्थ क्या है...
  1. बलात् या हठपूर्वक कोई काम करना...
  2. विशेषतः किसी या दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कोई काम करना...
  3. पुरुष द्वारा किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक धमकाकर या छलपूर्वक किया जानेवाला संभोग...
तीसरे अर्थ पर आने से पहले ही मैं शुरू के दो अर्थों पर ही अटक गया... मुझे लगा एक लड़की के साथ जाने कितनी बार बलात्कार होता होगा... मेरी नज़र में हर वो माता-पिता बलात्कारी हैं जो अपनी बेटी को कोख में ही मार देते हैं... क्यूँ ??
बचपन के 4-5 साल बीतने के साथ ही उसे तरह तरह की बातें सिखाई जाती हैं, उसे ये नहीं करना चाहिए, उसे ऐसा नहीं पहनना चाहिए, उसे किससे बात करनी है किससे नहीं... शाम को देर से नहीं निकलना और भी पता  नहीं क्या क्या ???  यहाँ तक कि उसे अपनी मनपसंद की पढाई करने की भी इजाज़त नहीं मिल पाती हमारे कथित 21वीं सदी के कई शिक्षित माता-पिताओं से... अगर किसी को ये लग रहा हो कि ये अब गुज़रे ज़माने कि बात है तो मैं अभी के अभी 10 परिवार अपने आस पास के गिना सकता हूँ जहाँ का बेटा किसी महंगे कॉन्वेंट पढता है और बेटी किसी छोटे अंग्रेजी स्कूल में, दलील ये कि वो किसी एक की ही फीस भर पाने में सक्षम हैं... जब तक एक लड़की इस दुनिया को समझ पाने के लायक बनती है तब तक उसके साथ कई-कई बार बलात्कार हो चुका होता है... बलात्कार उसके सपनों का, उसकी इच्छाओं का उसके अरमानों का...
आपको क्या लगता है वो 6 लोग कहीं आसमान से टपके हैं, जो हम सब पूरा झंडा ऊंचा करके उनकी फांसी की मांग करने में लग गए.. अरे वो यहीं से हैं आपके आस पास.. कहीं न कहीं हमारे अन्दर... सड़क पर किसी लड़की के साथ चल कर देखिये... सड़कों किनारे खड़े कई लोग आँखों से बलात्कार करते नज़र आयेंगे... ऐसे घूरेंगे जैसे अभी 5 मिनट के लिए दुनिया पॉज हो जाए तो बस... उन भूखी, लार टपकाती हुयी नज़रों के खिलाफ क्या कोई कानून बनाया जा सकता है... ?? उन्हीं 100 घूरते लोगों में से 1 किसी दिन इतना गिर जाता है जो ऐसा कुकृत्य करता है... लेकिन मेरे हिसाब से दोषी वो 1 नहीं पूरे 100 हैं.. सब के सब बलात्कारी हैं, मानसिक बलात्कारी.. जो बार बार एक लड़की के वजूद पर चोट करते हैं.. उस लड़की को सड़क पर नज़र झुका कर चलने पर मजबूर करते हैं जैसे उसने घर से निकल कर कोई गुनाह कर दिया हो...
हम काँटों के झाड़ को दोष दे रहे हैं, उसको ख़त्म करने की बात कर रहे हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता इस झाड़ के फैलने से पहले ही उसे काट दें, बलात्कार का मतलब केवल सम्भोग करना ही नहीं है वो हर काम है जो किसी लड़की की मर्ज़ी जाने बिना या उसकी मर्ज़ी के खिलाफ किया जाए... सिर्फ तन का भक्षण करना ही नहीं बल्कि मन का भक्षण भी बलात्कार है...
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