Sunday, November 17, 2013

ज़िंदगी के धागे पर पड़ी छोटी-छोटी गिरहें...

मेरे कमरे की खिड़की को बंद हुए सालों गुज़र गए... अक्सर हवाएं उस खिड़की से टकराती रहती हैं, जैसे पूछ रही हों ... ऐसा क्या हुआ.... ऐसा क्यूँ हुआ... उन गुज़रे लम्हों को यादो की किताब में कैद कर एक अलमारी में बंद कर दिया है, जब भी आओ वो किताब ले जाना... "वक्त की दीमक" धीरे धीरे उन्हें "खत्म करती जा रही है!!"

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एक बंद अँधेरा सा कमरा, उसमे धीमी धीमी सी नीले रंग की रौशनी....
सीलन भरी दीवारों पर एक तस्वीर ... थोड़ी धुंधली...
अचानक से बहुत तेज़ हवा चलती है, और खिड़की का पल्ला चरचराता हुआ खुल जाता है....
कमरा अचानक से तेज़ रौशनी की चकाचौंध से भर जाता है...
और वो तस्वीर ... पता नहीं किसकी थी... अगर कुछ दिखता भी है तो पानी के धब्बे पड़े ऐनक के पीछे से झांकती एक जोड़ी बूढी आखें....
कुछ सपने भी अजीब होते हैं...

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यूँ ही साथ चलते चलते शाम-ए-हयात आएगी,
हमारे बिछड़ने का पैगाम साथ लाएगी...

क्यूंकि घास पर हमेशा के लिए ओस नहीं रहती.... :( :(

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एक अकेली रात है, आप तारों के साथ बैठे हैं... फिर जैसे ही चलने की कोशिश करते हैं चाँद चुपके से नारियल के पत्तों की ओट से झांकते हुए पूछता है, मेरी परछाईयों पर ये मोहब्बत की चादर किसने चढ़ा दी है... मैं भी चुपके से कह देता हूँ ये परछाईं नहीं, ये तो रौशनी है मेरे प्यार की जो मुझे तब रौशन करती है जब मैं अकेला होता हूँ...

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कोशिश कर रहा हूँ कि ये बंद मुट्ठी खोल दूं, जितनी ही शिद्दत से इसे कैद करने में लगा हूँ, उतनी ही तेजी से रेत हाथों से निकली जा रही है... लेकिन ये हवा इतनी तेज है कि अगर मुट्ठी खोल भी दी तो भी ये हवा सारी रेत उड़ा ले जायेगी...

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मैंने तुम्हारी नींद पर एक पहरेदार लगा रखा है,
तुम्हारे इन सपनो को पलकों पर बिठा रखा है..
बिताता हूँ दिन अपने, तेरी मुस्कराहट के बाग़ में,
खुद के चेहरे को खंडहर बियाबान बना रखा है...

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कितनी बार ही सोचा आखिर जन्मों की गिनती को हम सात तक ही क्यूँ सिमित कर देते हैं, तुम्हारी आखों में गहरे उतर कर देखा तो जाना इनमे न जाने कितने हज़ार जन्मों की ज़िन्दगी छुपी है मेरी...

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