Wednesday, November 13, 2013

मैं उसका शहर छोड़ आया था...

कभी जब छुट्टियों में
लौटता हूँ उस शहर को
तो वो नुक्कड़ मुझे
बेबस निगाहों से
ताक लिया करता है...
उस पुरानी इमारत पर
पड़ चुकी काई 
मुझे देख फिसल सी जाती है,
वो गलियां अब मुरझा गयी हैं
वो खिड़की भी अब
अधखुली सी ऊँघती रहती है...
दिल करता है कभी
पूछूँ इस खस्ता सी चाँदनी से
क्या अब भी हर शाम
वो खिड़की खुलती है...
क्या झाँकता है कोई
अब भी उस खिड़की से...

 
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